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________________ १८८ अनेकान्त दिगम्बर जैनों के प्रति तो उनके बहुतेरे उपकार हैं। ऐतिहासिक नोप्राखाली काण्ड के समय पावजी कई जगह मैं गया और यह देखकर विस्मय हुआ कि वहाँ पहुँचे थे, और जमकर एक डेढ महीने तक उस बाल छोटेलालजी के आदेश पर वहां की व्यवस्था निर्भर दुद्धर्ष परिस्थिति में निर्भर होकर सेवा कार्य किया था। है। उदयगिरि-खण्डगिरि जैसे एकान्त और निर्जन प्रदेश इन विद्वानों और कार्यकर्तामों को उनसे प्रोत्साहन प्राप्त में पहुंचकर उस दिगम्बर तीर्थ का आविष्कार और हुआ। उनकी गिनती न होगी। यद्यपि उनका अच्छा उद्धार उनके जैसे निष्ठावान साधक का ही काम था। बड़ा व्यवसाय था लेकिन उनका अधिकांश समय समाज मैं तो तब पहुँचा जब उत्कल की राजधानी भुवनेश्वर का की सेवा में व्यतीत हमा। कारी विचार मे उनकी श्रद्धा निर्माण समीप ही हो चुका था । किन्तु फिर भी उदयगिरि और लालसा न थी। वरन उनकी वृत्ति रचनात्मक थी। मौर खण्डगिरि का वह प्रखड नितान्त वीरान मा प्रतीत साहित्य के निर्माण और उद्धार का उन्हें चाव था, और होता था, दूर दूर इतने पड़े हुए जैन तीर्थों के उद्धार कार्य इस दिशा का उनका अभिप्राय बहुत अभिनन्दनीय है। का उनका योग देखा जा सकता है। जैनों विशेषकर वीरसवामन्दिर उनके जीवन की साधना की यन्तिम कति दिगम्बर जैनों के प्रति यद्यपि उनमे ममत्व भाव था पर के रूपमे हमे प्राप्त है । और पाशा करनो चाहिए कि उस वह उममे सर्वथा घिरे हुए न थे। मारवाड़ी रिलीफ सस्था का सब प्रकार का सहयोग इस रूप में प्राप्त होगा। सोसाइटी और इसी प्रकार की दूसरी सेवा समितियो मे कि वह समाज के लिए सरस्वती सस्थान का स्थान ले ले, उनका दायित्वपूर्ण योग रहा । और उस स्वर्गीय मारमा का समुचित स्मार6 बन सक। विचारवान सहदय व्यक्ति पन्नालाल साहित्याचार्य अभी जनवरी के प्रथम सप्ताह में भारतवर्षीय दि. हम और पण्डित जगन्मोहनलालजी उनसे मिलने गये । जैन विद्वत्परिषद की कार्यकारिणी के बाद वाराणसी मे अस्वस्थ होने के कारण वे मारवाड़ी हास्पिटल में प्रविष्ट कलकत्ता जाने का अवसर पाया । श्रीमान् प० जगन्मोहन थे। अलग कमरा था । बडी प्रसन्नता से मिले, हम लोग लालजी शास्त्री कटनी साथ थे। मार्ग मे अनेक विषयों चार दिन तक कलकत्ता रहे और चारो दिन उनस मिलते तथा व्यक्तियों पर चर्चा हुई। श्रीमान् बा० छोटेलालजी रहे । बीमार होन पर भी उनके मुख पर उद्विग्नता का कलकत्ता भी एक चर्चा के विषय थे। पण्डितजी ने उनके एक प्रश भी दिखाई नहीं देता था। एक दिन शाम को विषय मे जो अपने अनुभव सुनाये उनसे बा० छोटेलालजी हम दोनों हास्पिटल गये तब उनके कमरे पर बाहर लिखा के प्रति मेरे हृदय में बहुत श्रद्धा उत्सन्न हुई। वैसे वे हया था कि मिलना मना है। हम लोग बाहर रुक गये पूज्य वर्णी जी के प्रत्यन्त भक्त थे और उनके निमित्त से पर जब बाबूजी को इसका पता चला तब उन्होन उसी उनका सागर भी एक-दो बार पाना हमा है। एक बार समय बुलाकर दुःख प्रकट किया। उन्हान भपन द्वारा साचत पुरातत्व का सामग्रा मूति मादि उनकी प्रत्येक वाणी से स्नेह टपकता था। ऐसा की फिल्म मन्दिर मे दिखलाई थी तथा स्वय ही उसका लगता था कि इस महापुरुष के हृदय में स्नेह का अगाध परिचय दिया था। उनके इस कार्य से जनता बहुत प्रभा- सागर लहरा रहा है। डा० भागचन्द्रजी भी उस समय वित हुई थी। वर्णी जी के प्राहार होने के उपलक्ष में सपत्नीक बम्बई से पाये उनके सौजन्य पौर प्रतिभाशालि. पापने सागर विद्यालय को एक हजार का दान भी त्व की बाबूजी बहुत समय तक चर्चा करते रहे। अनेक दिया था। उदारता और विवेक दोनों ही गुणों का उनमे विषयों पर चर्चा होते होते एक दिन मुझसे बोले कि अच्छा परिपाक देखने को मिला था। कलकत्ता पहुंचने पर मुझे आपसे एक शिकायत है। मैंने कहा कि क्या बाबू
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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