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________________ एकसंस्मरण १४९ जी! बोले कि मापके अन्यों में पद्यानुक्रमणिका नही दुर्बलता अत्यन्त बढ गई थी। बोने-शरार तो बिल्कुल रहती इसके बिना अन्वेपकों को बड़ी कठिनाई होती है। घुल गया है अब इसमें कुछ रहा नहीं है और रहे इसकी बाबूजी की दृष्टि में बहुत पहले प्रादिपुराण का प्रथम इच्छा भी नहीं है। इच्छा सिर्फ एक बात की रह गई है संस्करण था। प्रारम्भ में उसमे पद्यानुकमरिणका नही दी कि हमने विदेशों तथा देवा में प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तकों में गई थी। सोचा था कि स्वाध्यायशील जनता के लिए जनधर्म के विषय में किसने क्या उल्लेख किया है इसके कथा की मावश्यकता है श्लोक की नहीं, इसीलिए इतने मंग्रह का कार्य प्राराम किया था पर ससे मज पूरा करने विशाल ग्रन्थ की पद्यानुक्रमणिका कौन तैयार करे ? न की क्षमता शरीर में नहीं दीखती । यदि एक बार पन्छा प्रकाशक की प्रेरणा रही और न मेरा उत्साह । परन्तु होकर यह काम हो जाता तो लोगों को बड़ी सुविधा जब अन्य मामने पाया बाबूजी ने भारतीय ज्ञानपीठ को होती। हम लोगों ने कहा कि बाबूजी! किसी सहायक प्रेरित कर उसकी पचानुक्रमणिका बनवा कर पृथक से को रखकर यह महत्वपूर्ण कार्य करा लीजिये। बोले कि छपवाई पोर जो प्रतियां कार्यालय से चली गई थी उनके सहायक के हृदय में भी इस बात की लगन को तो काम खरीदारो के प्रति अलग से भिजवाई तथा शेष प्रतियो के बने । सहायक मिलते नहीं और मिलते हैं तो मेरी शारीसाथ लगवाई। उसके बाद तो उत्तरपुराण, पद्मपुराण रिक स्थिति गडबडा जाती है। जान पड़ता है यह कार्य १-२-३ भाग, हरिवंशपुगण तथा जीवन्धर चम्पू मादि अपूर्ण ही रह जायगा। जितना भी मेरा साहित्य ज्ञानपीठ से निकला सब के साथ यह सब कहते हुए उनके चेहरे पर उद्वेग सा छा अनुक्रमणिका दी जाने लगी। हरिवंशपुराण की अनु- गया, खांसी का दौरा भी उठ पडा और उससे वे परेशान क्रमणिका तो मैंने स्वय बनाई। बारह हजार इलोको को भी बहुत हए। हमारे हृदय में भी भाव उठा कि काश में अलग-अलग लिखकर उन्हे प्रकारादि क्रम से सगाना बडा अग्रेजी जानता होता तो सब काम छोड इनकी इच्छा पूरी कठिन काम था पर बाबूजी की प्रेरणा से मैंने किया । न करता परन्तु माषा का ज्ञान न होने से मैं कुछ कर ने केवल पधानुक्रमणिका ही, तीन चार हजार खास-खासकर सका । सामायिक का समय हो गया था इसलिए हदय में भौगोलिक, व्यक्तिवाचक, पारिभाषिक एवं साहित्यिक एक बिाद की भावना लेकर उस समय हम लोग उठकर सब्दो का भी प्रकारादि क्रम से सपरिचय सग्रह किया। चले पाये । पाते समय हम लोगों ने कहा कि बाब जी! समाज के अन्दर कौन व्यक्ति क्या कर रहा है? आप कम बोलिये । अधिक बोलने से शक्ति का ह्रास उसकी क्या स्थिति है इस सब की जानकारी बाबूजी होता है। बोले कि वैसे हम कम ही बोलते हैं मिलते भी रखते थे। अभी तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग से हमारे मित्र कम है पर पाप लोण कब कब पाते हैं, मिलने पर प्रापसे रतनलाल जी कटारया केकडी सागर पाये। बोले कि बात किए बिना कसे रहा जा सकता है। पिताजी के (मिलापचन्द्रजी कटारया) बहुत सारे निबन्ध अन्तिम दिन प्राते वक्त जब मिलने गये तब बोले बाबू छोटेलालजी ने वृहद् संग्रह के रूप मे छपवाये है इस पाज हमारी तबियत ठीक है। रात के उस दौर के बाद भावना के साथ कि ये महत्वपूर्ण निबन्ध प्रकीर्णक दशा मे खासी का कोई जोरदार दौरा नहीं पाया। ऐसा जान अखबारो की फाइलों में ही पड़े रह जावेगे। मुझे लगा पडता है कि हम पच्छे हो जावेगे। डाक्टर का नाम में कि बाबूजी की दृष्टि सर्वतोमुखी है किसी विद्वान् की भूल गया..."बहुत परिश्रम कर रहे है। उत्तम कृति व्यर्थ ही न पड़ी रहे इस बात का इन्हें कितना भी यह समाचार सुनकर कि २६ जनवरी को बा. ध्यान है। छोटेलालजी का स्वर्गवास हो गया है, हृदय पर गहरी एक दिन सन्ध्या समय हम लोग बैठे हुए थे। नर्स चोट लगी। लगा कि एक विचारवान् सहृदय व्यक्ति इजेक्शन देने मायी पौर देकर चली गई। बाबूजी दुर्बल- समाज से उठ गया। मैं शोक-संतप्त हृदय से स्वर्गीय बा. काय तो पहले ही से थे पर उस समय बीमारी के कारण जी के प्रति अपनी नम्र श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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