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________________ अनेकान्त बाबूजी की समनी स्मृति को स्थायी बनाने के लिए की। हमारा अमूल्य जैन साहित्य प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी इस सन्दर्भ में समाज से मेरा एक निवेदन है। माज तथा माधुनिक अन्य प्रान्तीय भाषामों में निबद्ध पडा है समाज के पास उनके प्रति श्रद्धा-व्यक्त करने के लिए दो और आज भी शोधकों तथा उदारमना व्यक्तियों की पोर रूप हैं । उनका वह भली भांति उपयोग किया जा सकता दयनीय दृष्टि से निहार रहा है। इस दिशा मे हमारे है । प्राकृत और जैनधर्म के अध्ययन-अध्यापन के प्रति ममाज का कर्तव्य है कि वह आगे पाने वालों को उत्साछोटेलाल जी का जो ममत्व था उसे कार्यरूप में परिणत हित करें और पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा प्रादि जैसे अपेक्षाकिया जाना चाहिए। यही उनके लिये पुष्पार्पण होगा कत कम महत्वपूर्ण कार्यों में व्यय कम कर उक्त प्रवृत्तियो पौर होगी यथार्थ श्रद्धांजलि । को विकसित करने में सहयोग दे। इस दृष्टि से मेरे कुछ ऐसे अवसर पर यह एक विचारणीय तथ्य है कि मुझाव है। कितना अच्छा होगा यदि समाज उन पर देश के इतने विश्वविद्यालयों में प्राकृत पोर जैनधर्म की गहराई और उदारतापूर्वक विचार करे और जैनधर्म के शिक्षा-व्यवस्था कुछेक विश्वविद्यालयों में ही है। वहाँ भी प्रचार प्रस्तर कार्य मे पागे बढ़े। अपेक्षित साधनों के अभाव में एतद्विषयक अध्ययन की (१) प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन करने वाले प्रवृत्ति कुण्ठित-सी होती जा रही है। मैं स्वयं नागपूर स्नातकीय और स्नातकोत्तरीय छात्रों को अधिक-से-अधिक विश्वविद्यालय के पालि-प्राकृत विभाग में हूँ और इस छात्रवृत्तियाँ दी जाय । स्थिति से भली भांति परिचित हैं। छात्रों की सदैव कमी (२) दिल्ली, मद्रास, मैसूर, नागपुर, कलकत्ता, बनी रहती है। यदि कुछ छात्रवृत्तियाँ प्राकृत व जैनधर्म बम्बई जैसे प्रमुख नगरो मे जैन शोधपीठ सस्थान प्रस्थ. के अध्ययन के निमित्त हमारे श्रीमान देने को तैयार हो पित किये जाय । जावें तो इसमें कोई सन्देह नही कि विभाग पर्याप्त प्रगति इन शोधपीठ सस्थानों के तत्वावधान में अप्रकाशित कर सकता है। जैन ग्रन्थो का आधुनिक ढग से प्रकाशन और प्रकाशित दूसरी बात है-जैन साहित्य प्रकाशन व्यवस्था ग्रन्थों का पालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाय । "सच्चा जैन" डा० दशरथ शर्मा मैं उन व्यक्तियों में से नहीं हूँ जो बाबू छोटेलाल जी जैन विलियोग्राफी'२ को सूत्र रूप में ग्रहण कर ही मैं से बदत प्रधिक सम्पर्क का दावा कर सकें । मैं तो केवल उस विषय पर कळ विशेष लिख सका है। उस वर्ग मे से है जिन्होंने उनके सौजन्य से अनेकश लाभ कर्मण्यता को मैं जैनधर्म की मुख्य विशेषता मानता उठाया है और जिन पर उनकी सदा कृपा दृष्टि रही है। है। मनुष्य के लिए सैद्धान्तिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। उनकी प्रात्मीयता की परिधि विशाल थी। सर्वथा अपरि. उसका आचरण भी तदनुकूल होना चाहिए। इस दृष्टि चित होने पर भी जब मैंने पाठवी से बारहवीं शती तक से मैंने बाबू जी को सदा मच्चा जैन पाया है। १९१७ के राजस्थानी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के विषय में उनगे के इ फ्लुएन्जा के भीषण प्रकोप, १९४३ के बगाल के पूछताछ की तो उन्होंने सविस्तर उत्तर देने की कृपा भीषण अकाल और नोग्राखाली के साम्प्रदायिक, अत्याकी थी। इसी तरह जब कभी मैंने कोई प्रश्न किया तो । चार के दिनो मे जो व्यक्ति डटकर काम कर सका उसे बाबू जी ने मेरी जिज्ञासा की निवृत्ति की। कभी-कभी "सच्चा जैन" कौन न कहेगा? ऐसी प्रात्मा शतशः धन्य अपरोक्ष रूप में भी उनके ज्ञान से मैंने लाभ उठाया है। है। उसके लिए अन्ततः वह स्थान निश्चित -- राजस्थान का इतिहास लिखते समय में प्राथम-पतन की जत्थ ण जरा ण मच्चू ण वाहिणो व सम्बदुबखाई। स्थिति से परिचित हो चुका था । किन्तु बाबू जी की १. देखें 'राजस्थान प्रदी एजेज' खण्ड १, पृ०७२४ २. पाटग केशोराय पर टिप्पणी देखें।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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