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________________ ज्ञान तपस्वी गुणिजनानुरागी रतनलाल कटारिया "जैन सन्देश" प्रादि पत्रों में प्रकाशित हमारे लेखों महान् प्रात्मा ने इस नश्वर देह का परित्याग कर दियासे प्रभावित हो बाबू छोटेलालजी ने हमें ता० २२-२-६२ एक ज्ञान-ज्योति इम लोकसे तिरोहित हो गई । श्रीसम्मेद के अपने एक पत्र में लिखा कि शिखरजी की यात्रा को जाने हुए जब हमने जयपुर में पं. "वीरसेवामन्दिर की कार्यकारिणी कमेटी में प्रवर चैनमुखदासजी से बाबू सा. के स्वर्ग-प्रयाण के 'अनेकान' का द्वैमासिक प्रकाशन और सम्पादकों मे पाप समाचार मुने तो बहुत ही सताप हुमा। यात्रा प्रारम्भ का भी नाम स्वीकृत हपा है अत. पाप 'अनेकान्त' के करते वक्त सोचा था कलकत्ता पहुँचने पर बार साहब से लिए लेख जटाने का प्रयत्न करे पौर स्वय भी लेख लिखे मिलेगे किन्तु वह सब स्वप्न हो गया। आपके पूज्य पिताजी का भी एक लेख अवश्य ही प्रयम उन विद्याप्रेमी गुणिजनानुरागी का स्मरण कर हमें अक मे रहना चाहिए उससे पत्र की प्रभावना होगी बरबम एक कवि का यह श्लोक याद माता हैमेरी ओर से सविनय निवेदन करें। उन जैसे प्रामाणिक, अद्य धाग निराधारा निरालबा सरस्वती। गम्भीर और मौलिक लेख बहुत ही कम देखने में पाते पडिता खडिताः सर्वे भोजराजे दिवगते ।। है, बडा भाग अध्ययन उन्होने किया है। 'अनेकान्त' मे (राजा भोज के दिवगत होते ही धारानगरी स्वामितो वमे ही लेख रहे तभी महत्व है।" हीन हो गई, सरस्वती पाश्रयहीन हो गई और पण्डित उनकी प्राज्ञा को स्वीकार कर हमने और पूज्य पिता मब खण्डित हो गये) जी मा० ने ४-५ लेख 'अनेकान्त' में लिखे उन सबसे बाबू सा० भी महानगरी कलकत्ता के माधुनिक भोज बाबू मा० बहुत ही प्रभावित हुए । इसके सिवा जैनसदेश ही थे। वे भी विद्वानो के परम सहायक थे और स्वयं शोधाक २० मे "जैनधर्म और हवन" शीर्षक पिताजी सा० विद्याप्रेमी तथा साहित्य रसिक थे एत्र साथ ही सुयोग्य के लेख से तो और भी अधिक प्राकृष्ट होकर बाबू मा. लेखक--'अनेकान्त' में प्रकाशित पुरातत्व सम्बन्धी उनके ने हमे बार बार लिखा कि लेख उनकी मूक्ष्मान्वेषण बुद्धि के परिचायक है इसी तरह "पापके और आपके पिताजी सा. के अब तक के 'महावीर जयन्ती स्मारिका' सन् ६२ में-प्रकाशित श्री प्रकाशित लेखो का संग्रह हम पुस्तकाकार रूप से प्रकाशित वत्स विह' शीर्षक सचित्र लेख तथा सन् ६३ को स्मारिका करना चाहते हैं पाप पुन. सम्पादन कर उन्हें बनारस में प्रकाशित 'छत्रत्रय' शीर्षक सवित्र ले स्वभी बड़ेही रोचक भेज दें,हमने कागज भेज दिया है।" और खोजपूर्ण है । लाखों रुपया उन्होने साहि य के उद्धार उनकी आज्ञा का हमने सहर्ष परिपालन किया, परि- और प्रकाशन मे एव विद्वानो की सहायता में व्यय किये णाम स्वरूप सन् ६५ के अन्त में 'जैन निबन्ध रत्नावली' थे एक तरह से उन्होने अपना सारा ही जीवन और धन के नाम से उन लेखों का ५०० पृष्ठों का प्रथम भाग छप सरस्वती के पुनीत चरणो में ही समर्पित कर दिया था कर तैयार हो गया- उन्हीं दिनों बाबू सा० गहरी रुग्णा- जैसे जौहरी रत्नों के परीक्षक होते हैं वैसे ही वे विद्वानों वस्था मे हो गए फिर भी उन्होने रोगशय्या पर पड़े-पड़े के पारखी थे-ता. २२-२-६२ के पत्र में उन्होंने लिखा ही 'रत्नावली' के लिए अपना प्रकाशकीय वक्तव्य लिख- थावाया और २६ जनवरी ६६ के प्रात.काल उन कर्मनिष्ठ 'अनेकान्त' के सम्पादक मण्डल में एक नाम डा.
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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