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________________ २२ अनेकान्त प्रेमसागर जी जैन M.A. Ph-D. का भी रखने का की इच्छा होती है पर उसके लिये द्रव्य चाहिए, समाज विचार है इन्होंने 'भक्ति काव्यों में जैनों की देन' विषयक को कार्य दिखाये बिना समाज से द्रव्य मिल नहीं सकता सुन्दर और खोजपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। आजकल हिन्दी और है मैं भी अपना प्रभाव कहाँ तक डाल सकता हूँ-काम अपभ्रंश की मोर हिन्दी संसार का ध्यान विशेष माकृष्ट दिखा कर ही द्रव्य प्राप्त कर सकता हूँ-इस समय मंदिर हो रहा है प्रत. पावश्यक है कि प्रजैन हिन्दी विद्वानों में में केवल एक ही काम करवाना है, वह है-"जैन जैन साहित्य का प्रचार किया जाय इस कार्य के लिए मैं लक्षणावली" का । मैं चाहता था कि केवल इसका प्रथम समझता है प्रेमसागर जी उपयुक्त हैं स्वभाव भी अच्छा है, भाग स्वरभाग ही निकल जाय तो समाजपर इसकी उपपरिश्रमी है। बड़ौत दि. जैन कालेज में प्रोफेसर है।' योगिता प्रगट होगी और आगे के व्यंजन भाग के लिए पं० श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार, डा. श्री ए. एन. सहायता मिल सकेगी। उपाध्ये जी, प० चैनसुखदासजी, ५० कैलाशचन्दजी, प. वर्तमान में लक्षणावली के प्रथम भाग का कार्य इतना जगम्मोहनलालजी, १० पन्नालालजी (साहित्याचार्य).५० ही है किफूलचन्दजी, प० वशीधरजी M. A. विद्वानों पर उन्हे (क) संकलित लक्षणों को मूल प्रतियों से मिलान काफी श्रद्धा थी। इन विद्वानों को अच्छा प्रामाणिक मानते करना । नये ग्रन्थ निकले है उनमें के लक्षणों को भी थे-हमारे पास प्रागत उनके पत्रों से यह जाहिर है। सम्मिलित करना। इसके सिवा उन पत्रों से उनकी माहित्य-सेवा की उत्कट (ख) विभिन्न शताब्दियों के लक्षणों को काल-क्रमालगन का भी पता चलता है, नीचे दो पत्रो से कुछ प्रश नुसार लगाना । इसके लिए सब प्रावश्यक दिगम्बर व उद्धृत किये जाते है श्वेताम्बर ग्रन्थों की समय-सूची बनी हुई है कही कुछ (१) ता. २२-२-६२ के पत्र मे उन्होने लिखा था मतभेद हो तो उसके कालक्रम को अपनी दि. मान्यताअनेकान्त को भली प्रकार चलाने के लिए एक-एक नुसार ही देना। विषय के एक-एक विद्वान् पर भार डालने से ही सुविधा (ग) प्रत्येक लक्षण का मूलानुगामी हिन्दी अनुहोगी और पत्र भली भाँति चल सकेगा। इसलिए अभी __वाद तैयार करना। दो एक विद्वान् अपने को और भी सम्पादक मण्डल में हाँ यह आवश्यक है कि जहाँ जहाँ लक्षणों में परिरखना होगा । जैसे पुरातत्व-इतिहास-कला के लिए एक ___ वर्तन हुए हैं उन पर व्याख्या होनी चाहिये-यह कार्य सम्पादक । साहित्य के लिये दूसरा सम्पादक । प्रारम्भ मे बहुत सोच-विचार, मनन और अध्ययन का है तथा वह बिना दो तीन विद्वानों के सम्पन्न होना कठिन है। जहां बहुत परिश्रम करना होगा कठिनाइयाँ भी होंगी पर दो चार प्रक निकल जाने के बाद सरल हो जायगा अभी तो जहाँ लक्षणों में परिवर्तन-परिवर्धन हुए है उन पर देश अनेकान्त को द्वैमासिक ही निकालना है जब पत्र चलने काल भाव के अनुसार विचार करना होगा इसके लिए जैन सिद्धान्त का भी काफी ज्ञान होना आवश्यक है इसलगेगा तो मासिक कर लिया जायेगा। किन्तु प्रथम अंक लिए अभी वैसे सम्पादन के कार्य को तब तक के लिए शीघ्र निकल जाना चाहिए ताकि वीर जयन्ती के समय स्थगित रखा गया है जब तक कि उपर्युक्त तीन कार्य ग्राहक बनाने में सुविधा हो। अर्थात् मूल प्रति से मिलान, नये लक्षणों का सम्मिलन, (२) ता. २१-३-६२ के पत्र में उन्होंने लिखा था काल-क्रमानुसार लक्षण-व्यवस्था और हिन्दी अनुवाद न "अब एक बात आपसे अपने हृदय की लिख रहा हो जाय। यह पूरा होने पर आपके पिताजी के पास है-पाप जानते हैं वीरसेवामन्दिर समाज की सस्था तयार प्रति भेजकर उनकी राय ली जायगी कि सम्पादन है, एक पैसे की भी प्राय नहीं है जो कुछ समाज से किससे करवाया जाय..." । मिलता है सब खर्च हो जाता है, दिन-दिन काम बढ़ाने इस सबसे स्पष्ट है कि बाबूजी सदा रोगी रहते हुए
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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