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________________ अन्तिम तीच इच्छाएं भी सरस्वती की सेवा में कितने संलग्न रहते थे। पूर्ण कर दें तो बाबू सा. की कर्मनिष्ठ दिवंगत मारमा लनामावली के कार्य के लिए बाबूजी ने पं. दीपचन्द बहुत सन्तुष्ट हो और समाज भी उनकी प्राभारी होजी पाण्डचा को नियुक्त किया था किन्तु कुछ लक्षणों का इसके लिए मैं पण्डितवर्य वंशीधरजी शास्त्री एम. ए., हिन्दी अनुवादादि ही हो पाया और अब वह सब विशाल पं० जगन्मोहनलालजी के सुपुत्र श्री अमरचन्दजी कलकत्ता कार्य यों ही पड़ा है-अनेक विद्वानो ने पहिले भी वर्षों से प्रेरणा करता हूँ कि वे इस मोर अपना बहुमूल्य समय तक इस कार्य पर अलग अलग श्रम किया है। इस तरह प्रदान कर यशस्वी बन, साथ हो बाबू सा. के भाई मानमस्था का काफी रुपया इसमे लग चुका है किन्तु न जाने नीय नन्दलालजी सा० से भी निवेदन करता है कि वे भी किम मुहूर्त में इस कार्य का प्रारम्भ हुआ है कि यह कभी सब तरह से अपना पूर्ण सहयोग दें। पूरा ही नही हो पा रहा है । कोई माई के लाल इस कार्य अन्त में मैं कर्तव्यनिष्ठ, उदार-हृदय, जनसेवक, को पूर्ण सम्पन्न कर दे तो यह जैन साहित्य की बहुत बड़ी कर्मठनेता, महान् दानी, विद्वानों के परम सहायक, महान् सेवा होगी और विद्वद् समाज इसके लिए उनकी सदा इतिहासज्ञ, पुरातत्ववेत्ता, सरस्वती-उपासक, समाज-विभूति ऋणी रहेगी। महामना बाबू साथी छोटेलालजी के अनेक सद्गुणो से इसके सिवा बाबू सा. के ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण प्रभावित हो उन्हे सादर श्रद्धाजलि समर्पण करता है और महान् धर्म-प्रभावक कार्य हैं जो अधूरे पड़े हुए हैं। अगर कामना करता हूँ कि उन महान् भारमा को सद्गति उनके श्रद्धालु प्रेमीजन और पारिवारिक-जन उन्हें मिलकर प्राप्त हो।* अन्तिम तीव्र इच्छाएँ डा०प्रेमसागर जैन बाबू छोटेलाल जी के साथ मेरा परिचय लम्बा नही प्रवाधगति में कोई बाधा नही पाई । स्नेह भीने और प्रेम है । मन् १९६१ के जून में, मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन रञ्जित वे पत्र मेरे लिए बहुत बड़े सम्बल है। उन पत्रों में वीर-मेबा-मन्दिर, दिल्ली में किये । तब से उनका जो सहस्रो बाते है। उनमें बावजी के स्वस्थ विचार हैं, स्नेह मिला, सतत बढता गया, जो विश्वास मिला, घनी. योजनाएं है, उनकी अपनी अभिलापाएँ और इच्छाएं हैं। भूत होता गया। सन् १९६२ की मई मे वे कलकत्ता चले दिवावसान के ८ दिन पूर्व लिम्वा उनका एक ऐसा पत्र गये । मुझे बुलाकर कहा कि ग्रीष्मावकाश मे तुम यहाँ जिसमे उन्होंने तीन तीव्र इच्छाएँ अभिव्यक्त की थीं। रहो और वीर-सेवा-मन्दिर के साहित्यिक काम तुम्हें करने इस सम्बन्ध में वे पहले भी अनेक बार लिख चुके थे। होगे, जो मैं करता है। वीर-सेवा-मन्दिर को तत्कालीन मैं समझता हूँ कि वे अवश्य ही सम्पन्न होनी चाहिए। परिस्थितियो में मैं उन कामों को कर सका, इसका पूरा मभी जानते है कि बाबूजी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ श्रेय बाबूजी को ही है। मैं उनका ऐसा कुछ Jain vibliography' सन् १९४५ में, भारती जैन परिनिजी विश्वास प्राप्त कर सका था । इसके षद्, कलकना से प्रकाशित हुमा था। गयल एशियाटिक अतिरिक्त कलकत्ता से बाबूजी का प्रत्येक पाठवे दिन पत्र सोसाइटी के सदस्यों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। पाता था। ७ जुलाई १९६२ को मैं बड़ीत चला पाया। विदेशों में भी उसकी ख्याति फैली। इसी ग्रन्थ का दूसरा ग्रीष्मावकाश समाप्त हो चुका था। किन्तु उनके पत्रो की खण्ड बाबूजी ने तैयार किया था, किन्तु वह रफ पेपर्स
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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