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________________ जैन प्रतिमा लक्षण बालचन्द्र जैन एम० ए० साहित्य शास्त्री बिम्ब निर्माण क्यों? की वस्तु में प्रतिष्ठेय का न्यास करना प्रसद्भावस्थापना जन परम्परा में महत्, सित, साधु और केवली द्वारा १३ । गलोर मतिम माना गया हैनमें जैन ग्रंथकारों ने वर्तमान अवसपिणी कालमें प्रसद्भावसे साधु तीन प्रकार के होते हैं, (१) भाचार्य, (२) स्थापना पूजा का निषेध किया है, क्योकि वर्तमान काल में उपाध्याय पोर (३) सर्व (साधारण) साधु। केवली के लोग कुलिंग मति से मोहित होने के कारण अन्यथा कल्पना जिनवाणीया श्रत भी कहा जाता इसलिए कर सकते हैं। इसीलिए वसुनन्दी ने कृत्रिम और प्रकृमहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु, इन पांच त्रिम प्रतिमामा की पूजा को स्थापना पूजा बताया है। परमेष्ठियों और श्रुतदेवता की पूजा करने का विधान जैन जो मंगल है सो पूजनीय है, क्योंकि वह हमारे पाभ्यगंगों में मिलता है। अनेक जैन ग्रंथों में पूजन की प्राव. तर मल को गला कर दूर करनेवाला है और प्रानन्द श्यकता और उसकी विधि का वर्णन किया गया है और देनेवाला है। तिलोयपण्णत्ती में मंगल के छह भेद बताये उसे श्रावक का दैनिक कर्तव्य बताया है। कही इसे गये हैं, (१) नाममंगल, (२) स्थापनामंगल, (३) द्रव्य यावत्य के अन्तर्गत रखा है-जैसे समन्तभद्र के रत्नकरण्ड मगल, (४) क्षेत्रमंगल, (५) कालमंगल और (६) भावकाचार में कहीं सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत-जैसे भावमंगल । इनमें से स्थापनामगल कृत्रिम और प्रकृत्रिम सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू में, और कही कहीं पूजन को जिनबिम्बों को कहा गया है । श्रावक का एक स्वतत्र कर्तव्य कहा गया है-जैसे जिनसेन प्रवचनसारोद्वार और पदमानन्द महाकाव्य में भी कृत आदिपुराण में। जिनेन्द्र की प्रतिमानो को स्थापना जिन या महत् की वसुनन्दी ने पूजन को छह प्रकार का बताया है, (१) नामपूजा, (२) स्थापनापूजा, (३) द्रव्यपूजा, (४) क्षेत्र ३. साकारे वा निराकारे विधिना या विधीयते। पूजा, (५) कालपूजा और (६) भावपूजा। इनमें से स्थापना दो प्रकार की कही गई है। न्यासस्तदिदमित्युक्ता प्रतिष्टा स्थापना च सा ।। (१) सद्भावस्थापना और (२) प्रसद्भावस्थापना। भट्टाकलंककृत प्रतिष्ठाकल्प। ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, ३८५: माशाधरकृत प्रतिष्ठेय की तदाकार सागोपांग प्रतिमा बना कर उसकी प्रतिष्ठासारोद्धार, ६६३ प्रतिष्ठा करना सद्भावस्थापना है और शिला, पूर्णकुभ, अक्षत, रत्न, पुष्प, प्रासन मादि प्रतिप्ठेय से भिन्न प्राकार ५. एव चिरतणाणं कट्टिमाक ट्रिमाण पडिमाण । जं कीरइ बहुमाण ठवणापुज्जं हि तं जाण ॥ १. जिणसिद्धसूरिपाठ्यसाहूणं जं सुयस्स बिहवेण । वसुनन्दि थावकाचार, ४४६ कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहार्ण ॥ ६. णामणिट्ठावणादो दध्व खेत्ताणि कालभावा य । वसुनन्दि धावकाचार, ३८० : इय छन्भेयं भरिणयं मंगलमाणंदसंजणणं ।। २. णाम दुवणा दवं खित्ते काले वियाण भावे य। तिलोयपण्णत्ती, १०१८ छबिहपया भणिया समासमो जिणवरिदेहि । ठावणमगलमेदं प्रकट्टिमाकट्रिमारिण जिणबिंबा। वही, ३८१ वही, २२०
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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