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________________ २५० अनेकान्त विद्वत्ता किस काम को ?" इस लोक में अपने दशक में कही भी जैनत्व की सीमा का उल्लंघन परमेश्वर का स्वरूप सर्वज्ञ के रूप में स्पष्ट कर नहीं किया गया है। अपितु स्तुति को जैन और दिया है। नो का ईश्वर कर्ता-धर्ता नही, वैदिक दोनों परम्परागों से सम्मत बनाते हुए सर्वज्ञ ही है। भी रचयिता ने जैनत्व का संपोषण किया है। ६-"जो लोग उस परम जितेन्द्रीय पुरुष के इस प्रकार हम अन्य प्रकरणों की छानबीन मे भी जा दिखाये धर्म-मार्ग का अनुशरण करते है, वे सके तो सम्भवतः बहत सारी उक्तिया मिल जायेंगी जो दीर्घजीवी होगे ।" प्रस्तुत भावना मे भी नितान्त रूप से जैनत्व को अभिव्यक्त करने वाली ही है । जितेन्द्रिय शब्द से 'जिन' भगवान् की मोर अन्य विद्वानों के अंकन मेंसकेत किया गया है। तिरुकुरल' कृति की इस सहज अभिव्यक्ति को ७-"केवल वही लोग दु खो से बच सकते है जो भारतीय व पाश्चात्य के अन्य विद्वानों ने भी प्राका है। उस अद्वितीय पुरुष की श्रेणी में आते है।" कनक सभाई पिल्ले (Kanak Sabhai Pillai) एस. तीर्थकर भरत क्षेत्र में एक साथ दो नहीं होते; वियपूरी पिल्ले (S. Viyapuri Pillai) टी०वी०कल्याण इसलिए रचयिता ने उन्हें भी अद्वितीय पुरुष सुन्दर मुदालियर (T.V. Kalyan Sundara Mudaltar) कहा है, ऐसा लगता है। आदि अनेको जनेतर विद्वान है, जिन्होने स्पष्ट व्यक्त ८-"धन-वैभव और इन्द्रिय-सुख के ज्वार-संकुल किया है कि तिरुकुरल एक जैन-रचना है'। यूरोपीय समुद्र को वही पार कर सकते है, जो उन धर्म विद्वान् एलिस (Ellis) और ग्राउल (Graul) ने भी सिन्धु मुनीश्वर के चरणो मे लीन रहते है।" इसी मत की पुष्टि की है। यहा जनो के परमेष्ठी पचक पद की स्तुति तमिल विद्वान् कल्लदार (Kalladar) ने कुरल की की गई है। प्रशस्ति में लिखा है-"परम्परागत सभी मतवाद एक8-'जो मनुष्य अष्टगुण सयुक्त परमब्रह्म के चरणों दूसरे से विरोध रखते है। एक दर्शन कहता है, सत्य यह में सिर नहीं झुकाता, वह उस इन्द्रिय के समान है, तो दूसरा दर्शन कहता है, यह ठीक नहीं हैं, सत्य तो है, जिसमे अपने गुण को ग्रहण करने की शक्ति यह है । कुरल का दर्शन एकान्तवादिता के दोष से सर्वथा नहीं है।" जैन परम्परा मे मुक्त जीव सिद्ध मुक्त है२ ।" भगवान कहलाते है । वे केवलज्ञान, केवल 1. Thirukkural, Ed by Prof. A.Chakravarti, दर्शनादि पाठ गुणो से संयुक्त होते है। पूर्वोक्त Introduction, P.x. भावना में उनकी स्तुति का ही सकत 2 "Speaking about these traditional darshanas मिलता है। he (Kalladar) points out that they are १०-"जन्म-मरण के समुद्र को वही पार कर सकते conflicting with one another. However है, जो प्रभु के चरणो की शरण मे मा जाते one system says the ultimate reality is है। दूसरे लोग उसे तर ही नहीं सकते।" one, another system will contradict this प्रस्तुत भावना के प्रभु शब्द मे पच परमेष्ठी and says no. This mutual incompataरूप प्रभु की स्तुति की गई है, ऐसा स्वय bility of the six systems is pointed out लगता है। and the philosophy of Coural is praised to ५-"देखो, जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्साहपूर्वक be free from this defect of onesideness." गान करते हैं, उन्हें अपने कर्मो का दुःखप्रद फल -Thirukkural, Ed. by Prof. A Chakraनही भोगना पड़ता।" इस प्रकार समग्र स्तुति- varti, Introduction.
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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