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________________ तिरुकुरल (तमिलवेब): एक जन रचना २४९ ईसा की प्रथम शताब्दी में प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द और कपिल मादि तीर्थको पर मेरा द्वेष नही है। जिसका मद्रास के निकट पोन्नूर की पहाडियों में रहते थे। वचन यथार्थ हो, उमी का वचन मेरे लिए ग्राह्य है।" वल्लुवर का प्राचार्य कुन्द-कुन्द से सम्पर्क हुमा । वे भाषा समन्वय मूलक है। यथार्थता मे महावीर का वचन श्री कुन्दकन्दाचार्य के महान् व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित ही ग्राह्य है। हुए और कुन्द-कुन्दाचार्य ने उनको अपना शिष्य बना एक अन्य श्लोक मे जो जैन परम्पग में बहुत प्रमिड लिया। अपनी रचना 'कुरल' अपने शिष्य तिरुवल्लुवर है-ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी प्रणाम किया गया है पर को सौंपते हुए उन्होंने मादेश दिया-"देश मे भ्रमण करो शतं यह डाली है कि वे गग-द्वेष रहित हो। कहा गया और इस प्रथ के सार्वभौम नैतिक सिद्धान्तो का प्रचार हैकरो।" साथ-साथ उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को चेतावनी ___भव-बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । भी दी, "देखो! अथ के रचयिता का नाम प्रकट मत ब्रह्मा व विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्म करना, क्योंकि यह प्रथ मानवता के उत्थान के लिए कथनमात्र के लिए प्रणाम सबको किया है, पर प्रणाम लिखा गया है। आत्म-प्रशंसा के लिए नही।" ठहरता केवल 'जिन' के लिए है। कुरल के प्रस्तुत प्रमाणो के अधिक विस्तार मे हम न भी जाये तो इन्लोकार्थ मे भी प्रादि ब्रह्मा की स्तुति की गई है। पुराण उम प्रथ का प्रादि पृष्ठ ही एक ऐसा निर्द्वन्द्व प्रमाण है जो परम्परा के अनुसार ब्रह्मा आदि पृम्प हों, क्योंकि उसीसे 'कुरल' को सर्वाशत जन रचना प्रमाणित कर देता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार वर्ण पैदा हुए है। अतः यह प्रथम प्रकरण ईश्वर-स्तुति का है। हमें देखना है कि म्नुनि उम आदि-ब्रह्म तक पहुंचनी चाहिए। यहा गगरचयिता का यह ईश्वर कैसा और कौन होता है ? मुख्यत: द्वेष रहित होने का अनुबन्ध लगाकर रचयिता ने वह ईश्वर की परिभाषा ही जैन धर्म को अन्य धर्मों मे पृथक् स्तुति आदि पुरुष श्री आदिनाथ प्रभ तक पहुचा दी है। वे रखती है। कुरल की ईश्वर-स्तुति में कहा गया है-धन्य ग्रादि-पुरुप भी हे और राग-द्वेष रहित भी। है वह पुरुष जो प्रादि पुरुप के पादारविन्द में रत रहता एक अन्य श्लोक मे रचयिता कहते हैं-"जो पुरुष है, जो कि न किमी से राग करता है और न किमी से हृदय-कमल के अधिवामी भगवान के चरणो की शरण द्वेष।" जैन सस्कृति के मर्मज महज ही समझ सकते हैं लेता है, मन्यु उम पर दौड़कर नही पाती।" यहा विष्णु कि इस म्नुतिवाक्य मे कविता का हार्द क्या रहा है ? की स्तुनि प्रतीत होती है। पर हृदय-कमल के अधिवासी यह तो स्पष्ट है ही कि रचयिता अपने ग्रथ को सर्वमान्य पुरुष भगवान् कहकर रचयिता ने मारा भाव जैनन्द की प्रार्थना से अलकृत करना चाहता है। ग्रंथ के नैनिक ओर मोड दिया है। सगुणता मे भगवान् निर्गुणता की उपदेशों से जैन-जैनेतर सभी लाभान्वित हो, यह इसका मोर चले गये। अभिप्रेत रहा है। इन कारणों से उसने मगलाचार मे अन्य अनेकों श्लोको मे र वयिता ने अपने अभिप्राय सार्वजनिकता बरती है। रचयिता का अभिप्राय इतने में का निर्वाह किया है। ईश्वर-म्नुनि-प्रकरण का प्रत्येक ही अभिव्यक्त किया जा सकता है कि जैन देवों की स्तुति श्लोक ही इस दृष्टिकोण मे बहत माननीय है। इस प्रकरण हो और वैदिक लोग उसे अपने देवों की स्तुति माने। परमार्थ नष्ट न हो और समन्वय सध जाये। अन्य जैन , १-" 'अ' शब्द इलोक का मूल स्थान है, ठीक इमी प्राचार्यों ने भी इस पद्धति का व्यवहार किया है। तरह आदि-ब्रह्म मब लोको का मूल स्रोत है।" पक्षपातो न मे वीरे, नषः कपिलाविषु । यहा आदि ब्रह्म शब्द मे आदिनाथ भगवान की मुक्तिमद वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ओर सकेत जाता है। "महावीर आदि तीर्थकरो मे मेरा अनुराग नहीं है २-"यदि तुम मर्वज्ञ परमेश्वर के श्रीचरणो की १. ईश्वर-स्तुति-प्रकरण-४ पूजा नहीं करते हो तो तुम्हारी यह मारी
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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