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________________ २४० अनेकान्त को एक सन्त बताते हुए उनकी प्रशंसा की। शरारती इस समग्र विषय पर इतिहास भी कुछ करवट लेने लगा युवक ने कहा-"सन्तपन स्वयं एक ढोंग है । एक पादमी है। बल्लुवर सन्त-श्रेणी के व्यक्ति और विलक्षण मेवावी की अपेक्षा दूसरे प्रादमी मे ऐसी कौन-सी विशेषता होती थे। इसमे कोई सन्देह नहीं, पर उन्हे वह जान कहां से है, जिससे वह सन्त बन जाता है।" मित्रों ने कहा- मिला: यह विषय सर्वथा प्रस्पष्ट था। अब बहुत सार "शान्ति । इसी विशेषता से सन्त कहलाता है।" माघारो से प्रमाणित हो रहा है कि बल्लुवर जैन प्राचार्य शरारती युवक यह कहते हुए कि मैं देखता हूँ इसकी कुन्द-कुन्द के शिष्य थे और 'कुरल' उनकी रचना है। शान्ति, वल्लुवर के सामने ही जा धमका। एक साड़ी वल्लुवर 'कुरल' के रचयिता नही, प्रचारक मात्र थे । उठा ली और बोला-इसका क्या मूल्य है ? यह एक सुविदित विषय है : कि जैन धर्म किसी एक वल्लुवर-दो रुपये। परिस्थिति विशेष में उत्तर भारत से दक्षिण भारत में युवक ने साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़े साधु-चर्या का निर्वाह कठिन होने लगा था। उस समय के लिए पूछा-इसका क्या मूल्य है ? भगवान महावीर के सप्तम पट्टधर श्रुत केवली श्री भद्रबाहु वल्लुवर ने शान्त भाव से कहा-एक रुपया। युवक स्वामी साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं के एक चार, पाठ, सोलह प्रादि टुकड़े क्रमश करता गया और महान संघ के साथ दक्षिण भी पाये । सम्राट् चन्द्रगुप्त मन्तिम का दाम पूछता ही गया। सारी साड़ी मटियामेट भी दीक्षित होकर उनके साथ माये थे। वह संघ-यात्रा हो गई। वल्लुवर उसी शान्तभाव मुद्रा से यह सब देखते कितनी बड़ी थी, इसका अनुमान इस बात से लग सकता रहे । अन्त मे युवक ने कहा मेरे यह साड़ी अब किसी है कि १२००० साधु-श्रावको का परिवार तो केवल काम की नहीं है। मैं नहीं खरीदता। वल्लुवर ने भी प्रवजित सम्राट चन्द्रगुप्त का था। शान्तभाव से कहा-मच है बेटे ! अब यह साड़ी किसी मर राज्य में ऐसे अनेक शिलालेख प्राप्त हुए है, के किसी काम की नही रही है। शरारती युवक तिलमिला जिनसे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का कन्नड़ प्रदेश में पाना सा गया। मन मे लज्जित हुप्रा। मित्रो के सामने हुई और दीर्घकाल तक जैन धर्म का प्रचार करते रहना , अपनी असफलता पर कुढने लगा। जेब से दो रुपये निकाले प्रमाणित होता है। और वल्लुवर के सामने रख दिये। वल्लुवर ने रुपयों को भद्रबाह के दक्षिण जाने वाले शिष्यों में प्रमुखतम वापस करते हुए कहा-बेटे ! अपना सौदा पटा ही नही तो रुपये किस बात के ? अब युवक के पास कहने को विशाखाचार्य थे। वे तमिल प्रदेश में गये। वहां के कुछ नहीं रह गया था। अपनी ढीठता पर उसका हृदय राजामों को जैन बनाया। जनता को जैन बनाया। सारे तमिल प्रदेश में जैन धर्म फैल गया और शताब्दियों तक रो पड़ा। वह सन्त के चरणों मे गिर पड़ा, यह कहते हुए वह वहा राज-धर्म के रूप में माना जाता रहा। तमिल कि मनुष्य-मनुष्य में इतना अन्तर हो सकता है, जितना मेरे में और वल्लुवर सन्त में, यह मैंने पहली बार साहित्य का श्रीगणेश भी जैन विद्वानों द्वारा हुपा। व्याकरण प्रादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने गद्यात्मक व जाना है। पद्यात्मक प्रथ लिखे। कहा जाता है, इस घटना के पश्चात् वह शरारती युवक सदा के लिए भला हो गया। उसका पिता मोर १. विशेष विवरण के लिए देखें-ए. चक्रवर्ती द्वारा वह सदा के लिए वल्लुवर के भक्त हो गये और वे सम्पादित-Thirukkural की भूमिका। वल्लुवर का परामर्श लेकर ही प्रत्येक कार्य करने लगे। १. प्राचार्य श्री तुलसी अभिनन्दन ग्रंथ; चतुर्थ अध्याय, बैन-रचना के. एस. धरणेन्द्रिया, एम०ए०बी०टी० द्वारा 'कुरल' और 'वल्लुवर' के विषय में उक्त सारी विखित दक्षिण भारत में जैन धर्म शीर्षक लेख के धारणाएं तो जनश्रुति के अनुसार पल ही रही हैं, पर अब माधार पर।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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