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________________ अनेकान्त दैत की कथा के नाम से प्रसिद्ध है । इसी प्रकार शेर-खर- उनका रूप अपनी भावना के साँचे में ढाल दिया है। यही गोश, बदर-बया, नील सियार प्रादि की कहानियाँ हैं जो कारण है कि अनेक शृङ्गारिक पाख्यानों को अन्त मे जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध-जातकों, पचतत्र, हितो- उपदेश प्रधान बनाकर शान्त रस में पर्यवसित कर दिया पदेश, कथासरित्सागर प्रादि जनेतर अथो में ही नही है। सूफी कवियों ने आगे चलकर इसी प्रकार अपने प्रबन्धमिलती वरन प्राज भी सर्वसाधारण में प्रचलित हैं । इम काव्यो में प्रेम-मार्ग का प्रतिपादन किया। सार्वभौम और सार्वजनीन रूप को देखकर सहसा यह लोक-कथाओं की भॉति इन कथानों में भी एक कथा कहा जा सकता है, कि जैन कथा साहित्य भारतीय कथा के साथ कई कथाएँ अन्तर्लीन रहती है। इनका प्रारम्भ साहित्य का स्रोत ही नही रहा वरन् विश्वकथासाहित्य का प्रायः वर्णनात्मक ढग से होता है। प्रारोह अवरोह के प्रेरक भी रहा है। भारत की सीमायो को लांघ कर ये लिए विशेष स्थितियां नहीं बनती। सामान्यतः पात्र कथाएँ अग्ब, चीन, लका, योगेप प्रादि देश-देशातरो मे आरम्भ मे भोगी या मिथ्यादृष्टि होता है। मध्य में किसी भी गई है। उदाहरण के लिए 'नायधम्मकहा' की चावल निमित्त कारण से उसकी दष्टि बदल जाती है वह सम्यके पाँच दानो की कथा कुछ बदले हुए रूप में ईसाइयों के दुष्टि हो जाता है, समार से विरक्त हो जाता है। कभीधर्म अथ 'बाइबिल' में भी मिलती है । प्रसिद्ध योरोपीय कभी ऐमे पात्र भी आते है जो प्रारम्भ मे दृढ धर्मी और विद्वान् ट्वानी ने कथाकोश की भूमिका में यह स्पष्ट कर अडिग साधक होते हे पर अचानक साधना से उनका मन दिया है कि विश्व कथायो का स्रोत जनो का कथा-साहित्य उचट जाता है और वे मिथ्यादृष्टि बन जाते है । पर अन्ततः विविध कठिनाइयों और संघों को पारकर सभी जैन कथा साहित्य का साहित्यिक परिशीलन पात्र अपना-अपना फल पा लेते है। इन कथानों का मूल जैन कथानों का निर्माण मामान्यत एक विशेष उद्देश्य भी बुराई से मन की प्रवृत्ति को हटाकर भलाई विचार-धाग का प्रतिपादन करने के लिए किया गया है। की अोर मन को अग्रसर करना है। इस विचारधारा का केन्द्र बिदु है कर्म विपाक का कथा इतिवृतान्मक होती है। उममे ज़टिलता या सिद्धात । अर्थात जो जैमे करता है, उसे वैसे ही भोग वक्रता के लिए कोई स्थान नही। प्रादर्शोन्मुखी होने के भोगने पड़ते है। कोई किसी का मगा या साथी नहीं है। कारण इन कथानो में जगह-जगह अलौकिक सकेत मिलते मात्मा के माथ उसके कम ही पाते हे या जाने है। इस है। कही देव वक्रिय रूप धारण कर साधक की परीक्षा दार्शनिक धारणा के स्पष्ट प्रतिपादनार्थ सामान्यतः ऐसे लेते हुए दिखाई देते है तो कही उमकी भलाई से प्रभाकथानकों की सष्टि की गई है जो बुगई के बदले में बुग वित होकर उसके मंकट में सहायता करते हुए। यह और भलाई के बदले में भला फन प्राप्त कर लेते है। प परिवर्तन का तत्व कथा के प्रधान पात्र में भी पाया विषय की दृष्टि से तो यह कथा माहित्य अत्यन्त व्यापक जाता है और सहायक पात्र में भी । कही इलापुत्र नटनी है। इसमें जीवन के सभी पक्षो और ममाज के मभी वर्गों को पाने के लिए नट बनता है तो कही मोदक की प्राप्ति से कथानक लिये गये है। व्रतो का माहात्म्य बतलाया के लिए प्राषाढ मुनि चार रूप बनाते हैं । लोक साहित्य गया है तो धार्मिक अनुठानों की पक्ति का वर्णन भी में प्राप्त प्राय मभी कथानक रूढियो का पाश्रय भी इन क्यिा गया है। दान, पूजा. दया, गोल की प्रभावना का कयानो में लिया गया है। वर्णन है तो तपस्या की धारणा का महत्व भी प्रतिपादित मक्षेप में कहा जा सकता है कि इन कयामों का है। एक ही विचार-धागका प्रतिपादन होने से प्रकारान्तर कथानक लोक तत्व की नीव पर ही खड़ा हपा होता है । से यह माहित्य जितना विस्तृत है उतना ही सीमित भी। उसमे प्रादर्श की अवतारणा होती है, धर्म की विजय और कथाकारी ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लौकिक अधर्म की पराजय दिखलाई जाती है। उसका वृत्त महापात्रों को भी कही-कही जैनधर्म का बाना पहना दिया है। काव्य की तरह विस्तृत होता है। उसमे प्रौपन्यासिक
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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