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________________ उपनिषदों पर भमण संसति का प्रभाव २६३ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, उससे भिन्न है। होते हैं। प्रात्मविद्या के लिए बेटों की प्रसारता पौर परा विद्या प्रध्यात्म वा प्रात्म-विद्या है। मोकार पक्षों के विरोध में पात्मयज की स्थापना किसी पवैदिक के द्वारा उस मात्मा का ध्यान किया जाता था। प्रग्नो- धारा की भोर संकेत करती है। पनिषद में भी इस तथ्य की विशेष अभिव्यक्ति हुई है। इससे वैदिक ऋषियों की उदार और सर्वग्राही भावना वहां बताया गया है कि ऋग्वेद के द्वारा साधक इस लोक के प्रति सहज ही मादर भाव उत्पन्न होता है कि उन्होंने को, यजुर्वेद के द्वारा अन्तरीक्ष को और सामवेद के दाग विरोधी धारामों को भी किस प्रकार अपनी पारा में तृतीय ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। इनसे परम ब्रह्म की समन्वित कर लिया। प्राप्ति नहीं होती। शम्ब साम्य-उपनिषदों में श्रमणधाग के दर्शन का समग्र मोकार के ध्यान में उस लोक की प्राप्ति होती दूमरा हेतु शब्द-साम्य है। उनमें ऐसे अनेक शब्द हैं, है, जो शात, अजर, अमर, अभय और पर है मर्थात उससे जिनका उपयोग श्रमण-साहित्य में अधिक हपा है। परम ब्रह्म की प्राप्ति होती है।। नारद चारो वेदो पोर छान्दोग्यमे 'कपाय' शब्न राग-देष के पर्यमें व्यवहन है। अन्य अनेक विद्यामो का पारगामी था। उसने मनत्कुमार जैन भागम साहित्य में यह इसी अर्थ में हजारों वार से यही कहा-"भगवन् ! मैं मत्रवित है, प्रात्मवित् नही प्रयुक्त है जबकि वैदिक साहित्य में इस अर्थ में उसका है५ । इसमे साधक के मन मे वेदों के प्रति कोई उत्कर्ष प्रयोग सहज लभ्य नहीं है । मण्डूक उपनिषद् का तायी११ की भावना उत्पन्न नही होती। यह भावना महाभारत शब्द भी वैसा ही है। वह वैदिक साहित्य मे प्रायः व्यव. और अन्य पुगणो मे से कान्त हुई है। उनमे ऐसे मनेक हत नहीं है। जैन और बौद्ध साहित्य मे उसका प्रचुर स्थल है, जहा प्रान्म विद्या या मोक्ष के लिए वेदो की व्यवहार हुआ है। प्रसारता प्रकट की गई है। श्वेताश्वतर के भाष्य मे विवय साम्य-विषय वर्णन की दृष्टि से भी उपप्राचार्य शकर ने ऐमा एक प्रसंग उद्धृत किया है । बहा निपदों के कछ सिद्धान्तों का श्रमणों को सिद्धान्त धारा से भगु अपने पिता से कहता है बहुत गहरा सम्बन्ध है। "त्रयीधर्ममषधि, किपाकफलसन्निभम् । मण्डक, छान्दोग्य प्रादि उपनिपदो में ऐसे अनेक नास्ति तात सुन किञ्चिदत्र दुःख शताकुले। स्थल हैं बहा श्रमण विचारधाग का साट प्रतिबिम्ब है। तस्मान्मोमाय यतता, कवं सेव्या मया त्रयी।" जर्मन विद्वान् हर्टल ने यह प्रमाणित किया है कि मण्डूकोत्रयी धर्म प्रधर्म का ही हेतु है। यह किपाक (मेमर) पनिषद में लगभग जन मिद्धान्त जैमा वर्णन मिलता है फल के समान है। हे तात ! सैकड़ो दु.खो स पूर्ण इम और न पारिभाषिक शब्द भी वहा व्यवहृत हुए है१२ । कर्मकाण्ड मे कुछ भी मुख नही है । अतः मोक्ष के द्वारा प्रयत्न करने वाला मैं त्रयी धर्म का किस प्रकार सेवन उम प्राचीनकाल मे वेदों और उपनिपदो के भनिकर सकता हूँ। रिक्त ब्रह्मविद्या विषयक साहित्य 'श्लोक' नाम से प्रसिद्ध ___ गीता में भी यही कहा गया है कि त्रयी धर्म (वैदिक कर्म) म लगे रहने वाले सकाम पुरुष ससार मे पावा ८. मण्डूकोपनिषद् १-२, ७-१० गमन करते रहते है। यज्ञो को श्रेय मानने वाले मूढ़ १. छान्दोग्योपनिषद् ८,५,१ वृहदारण्यक २,२,९,१० १०. छान्दोग्य ७२६२-मृदिन कपायाय-शकगचार्य १. मण्डूकोपनिषद् ११३५ २. मुण्डकोपनिषद् २१५ ने इसके भाग्य मे लिखा है-मृदित कपायाय वार्ता३. मुडकोपनिसद् १७ ४. प्रश्नोपनिषद् ५७ दिरिव कषायो रागपादिपः सत्वस्य रजना ५. छान्दोग्योपनिषद् ७,१,२-३ रूपत्वात...। ६. श्वेताश्वतर पृष्ठ २३ : गीता प्रेस गोरखपुर, तृतीय ११ मण्डूकोपनिषत् ५५ संस्करण । ७. भगवदगीता ६.२१ १२. इण्डो-हरेनियन मूल ग्रंप और मंगोषन भाग ३
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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