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________________ १८२ अनेकान्त सरसावा के लिए स्थान परिवर्तन हो गया, जिसका कारण वह धरोहर सुरक्षित नहीं रही बा. छोटेलाल जी को उक्त किरण मे 'माश्रम का स्थान परिवर्तन' शीर्षक के लिखने पर मालूम हुमा कि उन्होंने वह रकम दूसरे धर्म नीचे दिया गया है। पत्र की घाटा-पूर्ति के लिए समाज कार्यों में दे डाली है, क्योकि वे धर्म कार्य के लिए निकाली का यथेष्ट सहयोग प्राप्त नहीं हो सका और इसीलिए हई रकम को अधिक समय तक अपने पास नहीं रखते। पाश्रम के दिसम्बर १९३० मे सरसावा जाने पर 'अनेकान्त इस तरह अनेकान्त का प्रकाशन और टला और उसके पत्र अगले वर्ष की सूचना' के अनुसार प्रकाशित नही हो पुन. प्रकाशन का योग उस वक्त तक नही भिड़ा जब तक सका-उसका प्रकाशन बन्द हो गया। कि ला० तनसुखराय जो (मैनेजिंग डाइरेक्टर तिलक बीमा ___ मन् १९३३ में वीरसेवा मन्दिर की स्थापना का कम्पनी) देहली का श्रीभाई अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय संकल्प करके मैंने उसके लिए अपने निजी खर्चे से नाग को साथ लेकर जुलाई १९३८ के वीरशासन जयन्ती के पंचमी (श्रावण शुक्ला ५) के दिन बिल्डिंग के निर्माण उत्सव मे, उत्सव के प्रधान की हैसियत से, वीरसेवाका कार्य सरसावा में शुरू कर दिया और मुझे दिन रात मन्दिर में पधारना नही हमा। आपने वीरसेवा मन्दिर उसी के कार्य मे जुट जाना पड़ा। जनवरी १९३४ मे के कार्यो को देखकर अनेकान्त के पुनः प्रकाशन की पाव'जयधवला का प्रकाशन' नाम का मेरा एक लेख प्रकट श्यकता को महसूस किया और गोयलीय जी को तो हमा, जिसे पढ़कर उक्त बा. छोटेलाल जी बहुत ही उसका बन्द होना पहले ही खटक रहा था-वे प्रथम वर्ष प्रभावित हुए. उन्होंने 'अनेकान्त' को पुनः प्रकाशित करा- मे उसके प्रकाशक थे और उनकी देशहितार्थ जेल यात्रा कर मेरे पास का सब ज्ञान धन ले लेने की इच्छा व्यक्त की के बाद ही वह बन्द हुया था। अतः दोनों का अनुरोध और पत्र द्वारा अपने हृद्यगत-भाव को सूचना देते हुए यह हुमा कि 'अनेकान्त' को अब शीघ्र ही निकलना चाहिए। भी लिखा कि-"व्यापार की अनुकूल परिस्थिति न होते लाला जी ने घाटे के भार को अपने ऊपर लेकर मुझे हए भी मैं अनेकान्त के तीन साल के घाटे के लिए इस प्राधिक चिन्ता से मुक्त रहने का वचन दिया और गोयसमय ३६००) रु. एक मुश्त प्रापको भेट करने के लिए लीय जी ने पूर्ववत् प्रकाशन के भार को अपने ऊपर लेकर प्रोत्साहित हैं, आप उसे अब शीघ्र ही निकाले ।" उत्तर मे मेरी प्रकाशन तथा व्यवस्था सम्बन्धी चिन्तामो का मार्ग धन्यवाद के साथ मैंने लिख दिया, मैं इस समय वारसवा- साफ कर दिया। ऐसी हालत में दीपमालिका से-नये मन्दिर के निर्माण कार्य में लगा हुमा हूँ-ज़रा भी अव- वीर निर्वाण सवन के प्रारम्भ होते ही अनेकान्त को काश नही हैं-बिल्डिग को समाप्ति और उसका उद्- निकालने का विचार सुनिश्चित हो गया। तदनुसार ही घाटन महर्त हो जाने के बाद 'अनेकान्त' को निकालने १ नवम्बर १९३८ से उसका पूनः प्रकाशन शुरू हो का यत्न बन सकेगा, पाप अपना बचन धरोहर रखें।" गया। बिल्डिंग का उदघाटन और वीरसेवा मन्दिर का इस प्रकार जव अनेकान्त के पून. प्रकाशन का सेहरा इस प्रकार जगा स्थापन कार्य वैशाख सुदि अक्षय तीज ता० २४ अप्रैल ला. तनसुखराय जी के सिर पर बँधना था तब इससे १९३६ को सम्पन्न हो गया। इसके बाद सितम्बर १९३६ पहले उसका प्रकाशन और उसमें बा. छोटेलाल जी की में 'जैनलक्षणावली' के कार्य को हाथ में लेते हुए जो संकल्पित उक्त ३६०० रु. की धन राशि का विनियोग सूचना निकाली गई थी उसमे यह भी सूचित कर दिया कैसे हो सकता था? इसी से वह धरोहर सुरक्षित नही गया था कि "अनेकान्त को भी निकालने का विचार रही, ऐसा समझना चाहिए। प्रस्तु अनेकान्त को पाठ चल रहा है। यदि वह धरोहर सुरक्षित हुई और वीरसेवा वर्ष बाद पुनः प्रकाशित देखकर और यह देखकर कि मन्दिर को समाज के अच्छे विद्वानों का यथेष्ट सहयोग उसका वार्षिक मूल्य भी लागत से कम ४) के स्थान पर प्राप्त हो सका तो माश्चर्य नहीं कि 'अनेकान्त' के पुनः ॥) रु० कर दिया गया है बा. छोटेलाल जी को प्रकाशन की योजना शीघ्र ही प्रकाशित कर दी जाय।" बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अनेकान्त की बराबर प्रतीक्षा मे
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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