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________________ अनेकान्त और वीरसेवानन्दिर के प्रेमी श्री बाबू छोटेलालजी श्रीजुगलकिशोर मुख्तार, 'पुगवीर' समन्तभद्राश्रम की दिल्ली करोल बाग मे २१ जुलाई टिप्पणियाँ बड़े मारके की है। सम्पावनकला-कुशलता का १९२६ को स्थापना हो जाने के बाद कोई चार महीने पूर्ण परिचय सामने है और अपने यशोविस्तार और बाद 'अनेकान्त' पत्र का नवीन प्रकाशन मेरे सम्पादकन्व उद्देशसाफल्य की पूर्व सूचना देते हैं। तीनों ही अंक मे प्रारम्भ हुप्रा था। उस समय अनेकान्त को पूर्ण मनो- जैसी उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण प्रकाशित हुए हैं उसे योग के साथ प्राद्योपान्त पढने वाले पाठकों मे थी बा० देखते हुए इसके उज्ज्वल भविष्य में किसी प्रकार का छोटेलाल जी जैन का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। संदेह नहीं किया जा सकता।" पाप कलकत्ता के सुप्रसिद्ध धर्मनिष्ठ सेठ रामजीवन "यह अनेकान्त" पत्र निसदेह जैन जाति के हृदय मरावगी के पाठ पुत्रों में पांचवे पुत्र थे, धनाढ्य होने के में उस पावश्यक शक्ति का संचार करेगा पौर पुनः इस माथ-साथ माप विद्वान भी थे; साहित्य, इतिहास तथा पवित्र मार्वधर्म की ध्वजा संसार में फहरायेगा । श्री पुरातत्व के विषय मे अच्छी रुचि रखते थे; जैन धर्म जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है कि इस नवजात शिशु को चिरंऔर समाज की मापके हृदय में चोट थी, दोनो को प्राप जीव करें।" उन्नतावस्था में देखना चाहते थे और अपनी शक्ति के पाश्रम तथा 'भनेकान्त' पत्र की महायतार्थ जब कुछ अनुसार प्रायः चुपचाप काम किया करते थे। पत्र की प्रेरणात्मक पत्र समाज के प्रतिष्ठित पुरुषों तथा विद्वानों तीन किरणों के निकल जाने पर जब प्रापसे उन पर को भेजे गये तब इनमे एक पत्र बा. छोटेलाल जी के भी मम्मति मांगी गई तब मापने जो सम्मति भेजी वह मने नाम था, जिसके उत्तर मे अक्टूबर १९३० को जो महत्व कान्त की संयुक्त किरण ६-७ मे 'भनेकान्त पर लोकमत' का पत्र उन्होने अपने हृदय के भावों को व्यक्त करता शीपंक के नीचे नं. ६७ पर प्रकाशित हुई है। उसके हुमा भेजा वह मनेकान्त की १२वीं किरण में पृ० ६५ पादि-मध्य और अन्त के तीन प्रश इस प्रकार हैं: पर प्रकाशित हुमा है। उसके निम्न शद खास तौर से "जो पत्र प्राक्तन विमर्श विचक्षण विद्या-चयोवृद्ध ध्यान में लेने योग्य है :प्रदेय ५० जुगलकिशोरजी के तत्वावधान में प्रकाशित हो । जो अनेकान्त" पत्र इतना उपयोगी है और जिसे उम पर सम्मति की क्या मावश्यकता है। श्री मुख्तार | पढ़ते ही पूर्व गौरव जागृत हो उठता है उसे भी सहायता जी के लेखों के पढ़ने का जिन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है वे के लिए मुंह खोलना पड़े-समाज के लिए इससे बढ़कर भले प्रकार जानते हैं कि पापका हृदय जैनत्व से प्रोत-लब्जा की बात नहीं है। यदि योरुप में ऐसा पत्र प्रकाप्रोत भरा हमा है, जैन इतिहास के अन्वेषण मे तो पाप शित होता तो न जाने वह सस्था कितनी शताब्दियों के एक अद्वितीय रत्न है। अन्य कृतियों के सिवाय केवल समाजाती" पापका 'स्वामी समन्तभद्र ही इस बात का सजीव उदा- इस पत्र में उन्होंने सहायता का भी कछ पाश्वासन हरण है। पाप जैसे कृत विद्य अध्यवसायी महानुभाव दिया था और पत्र का जीवन २-३ वर्ष के लिए निष्कसम्पादक हैं यही मुझे सन्तोष है।" ण्टक हो जाने के लिए खर्च का Estimate (तखमीना) "तीनों ही ग्रंक भीतरी पौर बाहरी दोनों दृष्टियों भी पूछा था, जो उन्हे बतला दिया गया था। अनेकान्त से बहत सुन्दर है। लेखों का चयन और सम्पादकीय की १२वी किरण निकलने के बाद समन्तभद्राश्रम का
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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