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कमेकात
सत्र) मागधी (१८ सूत्र) पैशाची (२१ सूत्र) चूलिका विषय में श्री एस. पी. रंगनाथ स्वामिन् का विश्वास है पैशाची (४ सूत्र) और अपभ्रंश (१५७ सूत्र हैं)। कि श्रुतसागर की रचना हेमचन्द्र और त्रिविक्रम की उनका अपभ्रश वाला भाग बहुत ही हीन है। शुभचन्द्र अपेक्षा अधिक विस्तृत, गम्भीर एवं विश्लेषणात्मक है । ने मूत्र तथा उनकी टीका की रचना बिल्कुल ही भिन्न उन्होंने अपनी व्याकरण मे अन्य वैयाकरणों की भांति शब्दावली में की है। यद्यपि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती किसी कोई विशिष्ट तकनीकी प्रयोग नहीं किये हैं। उनकी भी प्राचार्य का उल्लेख नहीं किया है फिर भी लिखा है रचना दूसरों की अपेक्षा सर्वथा स्वतन्त्र है पर उनके सूत्रो कि अपनी व्याकरण की रचना मे उन्होंने बहुत-सी प्राकृत का सूक्ष्म विश्लेषण करने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे ध्याकरणों का उपयोग किया है। (शुभचन्द्र मुनीन्द्रेण हेमचन्द्र के प्रत्यधिक समीप एव त्रिविक्रम से विशेषतया लक्षणाब्धि विगाह वै प्राकृत लक्षणं चक्रे...."प्रशस्ति) प्रभावित है। श्री प्रार. जी भडारकर४ श्रुतसागर की शुभचन्द्र के व्याकरण को पालोचनात्मक व्याख्या से इस साहित्यिक गतिविधियों का काल १४९४ ई. के लगभग तथ्य का स्पष्ट पता चलेगा कि उनकी व्याकरण तथा मानते है । और पीटर्सन५ तथा विद्याभूषण भी इस काल हेमचन्द्र और त्रिविक्रम की व्याकरण में कितनी समानता निर्णय से सर्वथा सहमत हैं। है। निश्चय ही शुभचन्द्र ने सूत्रों व वृत्ति के निर्माण मे हेमचन्द्र का अनुकरण किया है (कुछ सूत्र तो दोनों के
इस तरह पश्चिमी शाखा की सभी व्याकरणों का एक जैसे ही है) और त्रिविक्रम के सूत्र पाठ का क्रम तो
विश्लेषण एवं विवेचन से स्वष्ट प्रतीत होता है कि सभी वैसे का वैसा ही उद्धृत किया है। सत्य तो यह है कि में छः प्रमुख प्राकृत भाषाओं का उल्लेख है। जैसे महाशुभचन्द्र ने हेमचन्द्र पोर त्रिविक्रम का मशीन की भाँति राष्ट्रा (यद्याप नामल्लिख नहीं किया है) शौरसेनी मागधी अनुकरण किया है । अतः यह स्वाभाविक है कि वे प्राकृत
पैशाची चुलिका पैशाची और अपभ्रंश । उत्तरवर्ती ग्राचायाँ साहित्य की प्रगति मे बहुत ही थोड़ा मा योगदान कर
की देन प्रमुखतया उनके देशी शब्दों के संग्रह में निहिन सके। डा. प्रा० ने उपाध्ये २ ने यह सिद्ध करने का
है जो उन्होंने कुछ तो स्त्रय अनुभव से प्राप्त की है या प्रयत्न किया है कि शुभचन्द्र की साहित्यिक गतिविधियां
फिर तत्कालीन साहित्य मे संग्रह किया। फिर भी व्यव१५५१ ई० पूर्व ४० वर्ष तक विकसित होती रही जब
हारिकरूप से मभी समान हैं केवल हेमचन्द्र और त्रिविक्रम
ही ऐसे है जिन्हे कुछ विशिष्ट और मौलिक कहा जा कि उन्होंने १५५१ ई० में अपना पाडव पुराण समाप्त
सकता है। किया था।
मनुकुन्दनलाल जैन
- - - - - इस शाखा की एक और प्राकृत व्याकरण श्रुतसागर कृत 'प्रौदार्य चिन्तामणि'३ के छ. अध्याय हैं और इसके
मपादक भट्टनाथस्वामिन् पृ० २६.४४ Nodate: SP.V. रगनाथ स्वामी भारत की साहित्यिकनिधि
प्राकृत पाडुलिपियों की शोध, श्रुतसागर-प्रौदार्य १. उनकी व्याकरणों तुलना के लिए देखो “लड्डू का त्रिविक्रम आदि का परिचय" अग्रेजी में अनूदित
faarufo, Reprint from thc Dawa magazine ABORI IXI. P. 206, उपाध्ये Ibid P.55.
विजगापट्टम १६१०. . FF.
४. संस्कत पाडुलिपियों को शोध पर रिपोर्ट १८८३-८४ २. Ibid PP. 43 FF.
५. रिपोर्ट IV. PC. XXIII. ३. भार० एल० मित्रा, Proe. AS. B. 1875 P.77 ६. श्री एस. सी. विद्याभूषणकृत 'भारतीय तर्क"संस्कृत पांडुलिपियों की सूचना (iii) पृ० १६
शास्त्र का इतिहास" कलकत्ता १९२१ पृ० २१५