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अनेकान्त
बनवाया गया था किन्तु वास्तव में यह मन्दिर कला की ७४ की भी है१२। दृष्टि से बारहवीं सदी का है तथा अपूर्ण दशा में छोड़ राजपूतों के काल में जैनधर्म की बहत उन्नति हुई। दिया गया है। नन्दलाई के एक शिलालेख के अनुसार ब्राह्मणधम के अनुयायी होते हुए भी उन्होंने जैनधर्म के वि० सं० १६८६ में उस स्थान के संघ ने राजा सप्रति प्रति भी बड़ा उदार दृष्ठिकोण रखा। प्रतिहार राजा द्वारा बनाये हुए मन्दिर का पुनः निर्माण किया। वत्सराज के समय (७५३) का बना हुमा भोसिया में
महावीर स्वामी का मन्दिर है१३ । काकुड मंडोर का गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा बडली के शिलालेख को
प्रतिहार राजा था। वह संस्कृत का विद्वान् तथा जैनधर्म जैन शिलालेख मानते हैं और उनके अनुसार यह वीर
का संरक्षक था। पटियाला के शिलालेख से पता चलता है निर्वाण संवत ८४ का है। इससे यह सिद्ध होता है कि
कि उसनं ८७१ ई० में एक जैनमन्दिर बनवाया। प्रलवरके ईसा से पांचवी सदी पूर्व में भी यहाँ पर जैनधर्म प्रचलित
समीप अजबगढ़१५, नौगामा१६ तथा नीलकंठ१७ (राडमार) था। इसके विपरीत डा. डी०सी० सरकार के अनुसार
में ग्यारहवी व बारहवी सदी की जैन प्रतिमाएँ सिद्ध यह जन शिलालेख नही है तथा यह ईसा से दूसरी
करती है कि जब यहाँ गूर्जर प्रतिहारो का प्रभुत्व था तो शताब्दी का है। डा. सरकार का मत अधिक प्रमाणित
शेवधर्म के साथ साथ जैनधर्म का भी प्रभाव था। लगता है। इसमें संदेह नहीं कि चित्तौड़ के पासपास
चौहान राजामों ने भी जैनधर्म को प्रोत्साहन दिया । मध्यमिका (नगरी) नामक स्थान पर ईसा की दूसरी सदी
बिजोलिया का १२२६ का शिलालेख१८ इस सबन्ध मे पूर्व जैनधर्म विद्यमान था। मथुरा में कुषाणकाल के जैन
महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। पृथ्वीराज प्रथम ने वह श्रमण संघ की मध्यमिका शाखा के शिलालेखम मिले हैं।
के पार्श्वनाथ के मन्दिर के खर्चे के लिए मोरकुरी नाम माध्यमिका शाखा की स्थापना सुहस्थि के शिष्य प्रियप्रथ
का ग्राम दान में दिया। इसके पश्चात् सोमेश्वर ने स्वर्ग ने दूसरी शताब्दी पूर्व में की थी । नगरी में दूसरी व
प्राप्त करने की इच्छा से उपयुक्त मन्दिर को रेवा गाँव तीसरी शताब्दी पूर्व का शिलालेख भी मिला है जिसका
दान दिया । नाडोल तथा जालोर के चौहान राजामों के मर्थ है 'सर्वभूतों के निमित्त'१० । सम्भव है यह जैन धर्म
समय भी जैनधर्म का प्रचार हुमा । अश्वराज, पाल्हणदेव से सम्बन्धित शिलालेख हो तथा जैनधम के प्रचलित होने
प्रादि राजानों के शिलालेखों१६ से पता चलता है कि को सिद्ध करता है।
उन्होंने जैन मन्दिरों को भूमि, अनाज, धन प्रादि दान में गुप्तकाल के कुछ बाद के जैन अवशेष बूटी के समीप दिये। उनके समय में अनेक जैन मन्दिरों तथा मूर्तियों केशोराय पाटण मे मिले हैं। इनमे जैन कल्पवृक्ष पट्ट तथा की प्रतिष्ठा हई । जालोर के समरसिंह के राज्य में यशोजैन मूर्तियाँ उल्लेखनीय है । जनसाहित्य में इसका उल्लेख मध्यकालीन साहित्य मे 'माधम नगर' के रूप मे हा १२. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा जैनलेख संदोह, सं० ३६५ है११ । बसन्तगढ के जैन मन्दिर में एक प्रतिमा वि.स. १३. पाकियोलाजिकल सवें माफ इंडिया एनवल रिपोर्ट,
१९०८-६, पृ० १०८ ५. नाहर जैन लेख संग्रह, संख्या ८५६ ।
१४. जर्नल ग्राफ रायल एसियाटिक सोसाइटी, १८९५, ६. भारतीय प्राचीन लिपि माला, पृ० २-३
पृ० ५१६ ७. जनरल माफ़ बिहार रिसर्च सोसाइटी, जिल्द १६ १५. एनवल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम अजमेर, पृ०६७-६८
१९१८-१६, सं०४,६ मोर १० ८. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २, पृ. २०५
१६. वही, सं०३ और ४।। ९. सेक्रिड बुक्स माफ दी ईस्ट, २२, पृ० २६३ १७.प्राकियोलाजिकल सर्वे रिपोर्ट, जिल्द २० पृ० १२४ १.. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ० ५४
१८. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २६, पृ० १०१ ११. वीरवाणी स्मारिका, पृ० १०६
१९. वही, जिल्द ९ व ११