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________________ विशेष भिन्नता नहीं है। प्रात्मा का श्रवण, मनन भौर है। जन प्रमाणविदों ने परोक्ष प्रमाण के पांच विभाग साक्षात्कार-यह वेदान्त की साधना-विधि है और जैन- किए-स्मृति, २-प्रत्यभिज्ञा, ३-तर्क, ४–अनुमान, दर्शन की साधना विधि है-प्रात्म-दर्शन, प्रात्म-ज्ञान और ५-पागम । भारम-रमण। वेदान्त को प्रमाण मीमांसा में अप्रत्यक्ष के प्रमाण के वेदान्त ज्ञानमार्गी है। जैन-दर्शन ज्ञानमार्गी भी है विभागों का संग्राहक कोई शब्द व्यवहृत नहीं हुमा, इसऔर कर्ममार्गी भी। कोरा जान-मार्ग मोर कोरा कर्म- लिए वहाँ अनुमान, उपमान, पागम और पर्यापत्ति को मार्ग दोनों अपूर्ण हैं । परिपूर्ण पद्धति है दोनों का समु- स्वतन्त्र स्थान मिला। कचय । मोक्ष की उपलब्धि के लिए कर्म अप्रयोजनीय हैं, जैन दर्शन की प्रमाण मीमांसा में अनुमान मादि के जो प्रात्म-चिन्तन से शून्य हैं । इस अपेक्षादृष्टि से प्रयोज- लिT TET लिए एक परोक्ष शब्द व्यवहृत हुआ, इसलिए वहां उनकी नीय कर्म मात्म-ज्ञान में समाहित हो जाते हैं। वेदान्त स्वतन्त्र गणना नहीं हुई। अनुमान और प्रागम वेदान्त का दृष्टिकोण यही होना चाहिए। जैन-दर्शन इस तथ्य पद्धति में स्वतन्त्र-प्रमाण के रूप में और जैन-पद्धति मे को इस भाषा में प्रस्तुत करता है कि कर्म से कम क्षीण परोक्ष प्रमाण के विभाग के रूप में स्वीकृत हैं । वेदान्त नहीं होते प्रकर्म से कर्म क्षीण होते हैं। मोक्ष पूर्ण संवर के उपमान और जैन के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में कोई प्रर्थ होने पर ही उपलब्ध होता है । पूर्ण संवर अर्थात् कर्म भेद नहीं है। अर्थापत्ति का अर्थ है, दृश्य अर्थ को सिद्धि निवृत्त-यवस्था। के लिए जिस अर्थ के बिना उसकी सिद्धि न हो, उस जैन-दर्शन का प्रसिद्ध श्लोक है अदृष्ट अर्थ की कल्पना करना। पात्रको भवहेतुः स्यात्, संवरो मोमकारणम् । इतीयमाहती दृष्टि रज्यवस्याः प्रपंचनम् ॥ यदि दृष्ट और अदृष्ट अर्थ की व्याप्ति निश्चित न हो तो यह प्रमाण नहीं हो सकती और यदि उसकी प्रास्रव-बाह्य-निष्ठा-भव का हेतु और सवर- व्याप्ति निश्चित हो तो जैन प्रमाणविदों के अनुसार इनमें पात्म-निष्ठा-मोक्ष का हेतु है। महंत की दृष्टि का सार और प्रनमान में कोई प्रर्थभेट नटी होता। अंश इतना है ही है, शेष सारा प्रपंच है। वेदान्त के प्राचार्यों ने भी इन्हीं स्वरों में गाया है- उपसंहार अविद्या बन्धहेतुः, स्यात्, विद्या स्यात् मोक्षकारणम्। जैन और वेदान्त दोनों प्राध्यात्मिक दर्शन है। ममेति बध्यते जन्तुः न ममेति विमुच्यते ॥ इसीलिए इनके गर्भ में समता के बीज छिपे हए है। अविद्या-कर्म-निष्ठा-बन्ध का हेतु है और विद्या प्रकुरित और पल्लवित दशा मे भाषा और अभिव्यक्ति ज्ञान-निष्ठा-मोक्ष का हेतु है। के आवरण मौलिक समता को ढाककर उसमे भेद किए जिसमें ममकार होता है, वह बंधता है और ममकार हुए है। भाषा के मावरण को चीरकर झांक सके तो हम का त्याग करने वाला मुक्त हो जाता है। पायेंगे कि दुनिया के सभी दर्शनों के अन्तस्तल उतने दूर एक दृष्टि में प्रमाण का वर्गीकरण दोनों दर्शनों का नहीं हैं, जितने दूर उनके मुख हैं। अनेकान्त का हृदय भिन्न है। दूसरी दृष्टि में उतना भिन्न नहीं हैं, जितना यही है कि हम केवल मुख को प्रमुखता न दें, अन्तस्तल कि प्रथम दर्शन में दीखता है। प्रत्यक्ष दोनों द्वारा सम्मत का भी स्पर्श करे।* समालोचना-परोक में किसी के दोषों की समालोचना मत करो, जब तक तुम्हारी प्रात्मा मलिन है, तब तक उसे हो पर समझ उसी की आलोचना करो। जो त्रुटियां अपने में देखो उन्हें दूर करो। ऐसा करने से दूसरों की बुराई में तुम्हारा जो समय लगता था वह तुम्हारे ही प्रात्म-सुधार में काम मावेगा। वर्णी-वाणी
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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