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________________ जन-जन और वेदान्त केवल निश्चय नय से करता है। जैन दर्शन के अनुसार है। निश्चय नय से इस सत्य का रहस्योद्घाटन होता विस्तार मिथ्या या प्रसत् नही है । सत् के तीन अंश हैं- है कि विश्व के मूल में प्रभेद की प्रधानता है और व्यव१. ध्रौव्य हार नय से इस सत्य की व्याख्या होती है कि विश्व के २. उत्पाद विस्तार मे भेद की प्रधानता है। ३. विनाश जैन दर्शन द्रव्य और पर्याय (मूल और विस्तार) ध्रौव्य शाश्वत प्रश है । उत्पाद और विनाश प्रशाश्वत को सर्वथा एक नही मानता इस दृष्टि से ही तवादी प्रश है । ध्रौव्य संक्षेप है और उत्पाद-विनाश विस्तार है। ध्रौव्य की व्याख्या निश्चय नय से की जाती है और नहीं है किन्तु वह इस दृष्टि से ही दंतवादी है कि वह उत्पाद-विनाश की व्याख्या व्यवहार-नय से। ध्रौव्य से विश्व के मूल मे चेतन और प्रचेतन का भिन्न-भिन्न भिन्न उत्पाद-विनाश और उत्पाद-विनाश से भिन्न ध्रौव्य अस्तित्व स्वीकार करता है। वह इस अर्थ में बहुत्ववादी भी है कि उसके अनुसार जीव और परमाणु व्यक्तिश' कभी और कही भी नहीं मिलता। जहाँ ध्रौव्य है वही अनन्त हैं । जब हम नित्यता से अनित्यता की ओर तथा उत्पाद और विनाश है और जहाँ उत्पाद-विनाश है वही अशुद्धता (विस्तार) से शुद्धता (मूल) की पोर बढ़ते है ध्रौव्य है। इसलिए प्रोग्य, उत्पाद और विनाश ये तीनों तब हमें अभेद-प्रधान विश्व की उपलब्धि होती है और सत् के अपरिहार्य प्रश हैं । वेदान्त यह कब मानता है कि जब हम नित्यता से प्रनित्यता की ओर तथा शुद्धता से मूल से भिन्न विस्तार और विस्तार से भिन्न मूल है। प्रशुद्धता की ओर बढ़ते है तब हमे भेद प्रधान विश्व मूल और विस्तार दोनों सर्वत्र सम व्याप्त है। उपलब्ध होता है । जो दर्शन एकान्त दृष्टि से देखता है, वेदान्त विस्तार को मिथ्या या असत् मानता है और उसे एक सत्य लगता है और दूसरा मिथ्या। वेदान्त की जैन-दर्शन उसे प्रनित्य मानता है। अनित्य अन्तिम सत्य दृष्टि मे भेदात्मक विश्व मिथ्या है और बौद्ध दर्शन की नही है, इस दृष्टि से वेदान्त अनित्य को मिथ्या मानता दष्टि में प्रभेदात्मक विश्व मिथ्या है। जैन-दर्शन भनेहै। अनित्य अन्तिम सत्य की परिधि से बाहर नहीं है। कान्तवादी है इसलिए उसकी दृष्टि में विश्व के दोनो इस दृष्टि से जैन दर्शन अनित्य को सत् का अंश मानता रूप सत्य है। है. दोनों में जितना भाषा-भेद है उतना तात्पर्य-भेद इस उभयात्मक सत्य की स्वीकृति वेदान्त के प्राचीन नहीं है। प्राचार्यों ने भी की है। भर्तृ प्रपंच भेदाभेद बादी थे। स्याद्वाद और क्या है ? भाषा के प्रावरण में जो उनका अभिमत है कि ब्रह्म अनेकात्मक है। जैसे वृक्ष सत्य छिपा रहता है, उसे अनावृत करने का जो प्रबल अनेक शाखाओं वाला होता है । वैसे ही ब्रह्म अनेक शक्ति माध्यम है वही तो स्यावाद है। स्याद्वाद की भाषा मे व प्रवृत्तियुक्त है। इसलिए एकत्व और नानात्व दोनों कोई भी दर्शन सर्वथा द्वैतवादी या सर्वथा प्रदतवादी ही सत्य है-पारमार्थिक है । 'वृक्ष' यह एकत्व है। नही हो सकता। सत्ता की दृष्टि से विश्व एक है। सत्ता 'शाखाएँ' यह भनेकत्व है। 'समुद्र' यह एकत्व है। से भिन्न कुछ भी नहीं है, इसलिए वह एक है। इस 'उमियां' यह भनेकत्व है। 'मृत्तिका' यह एकत्व है । 'घड़ा' व्याख्या पद्धति को जैन दर्शन संग्रह नय कहता है। आदि अनेकत्व है । एकत्व अंश के ज्ञान से कर्मकाण्डाश्रित जगत की व्याख्या एक ही नय से नहीं की जा सकती। लौकिक और वैदिक व्यवहारों की सिद्धि होगी। दृश्य जगत की वास्तविकता को भ्रान्ति मानकर झुठ- शंकराचार्य ने भर्तृप्रपच को मान्यता नहीं दी, पर लाया नही जा सकता। इस दृष्टि से विश्व अनेक भी उन्होंने नानात्व को भी मृगमरीचिका की भाति सर्वथा है। विस्तार की व्याख्या-पद्धति को जैन-दर्शन व्यवहार असत्य नहीं माना। नय कहता है। भाषा के प्रावरण में जैन और वेदान्त के साधनासत्य की व्याख्या इन दोनो नयों से ही की जा सकती पथ भिन्न-भिन्न लगते हैं किन्तु तात्पर्य की दृष्टि से उनमें
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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