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स्व० बा० छोटेलालजी के उद्गार
.संसार में अपने और पराये का जो व्यवहार चल रहा है वह अर्थहीन है। यहां न कोई अपना है, न पराया। यह कोई नहीं जानता कि संसार के इस महासमुद्र के प्रवाह में पड़कर कौन कहां से बहता हुमा प्रा जाता है और कौन बहकर दूर चला जाता है।
बहु परिग्रह के भीतर जीवन तुच्छ होने लगता है, दुःख दैन्य और प्रभाव में से गजर कर मनुष्य का चरित्र महान और सत्य हो जाता है।
जीवनकी बहुतसी बड़ी बातो को हम तब पहचान पाते है जब उन्हे खो देते है।
.त्याग और विमर्जन की दीक्षामे सिद्धि प्राप्त करना ही हमारी सबसे बड़ी सफलता है। इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर हमारी कितनी ही विधवा बहनें जीवन की सर्वोत्तम सार्थकता का अनुभव कर गई हैं।
.प्रत्येक मनुष्य की दृष्टि के सामने एक लक्ष्य तो रहना ही चाहिए। लक्ष्य प्राप्ति की चेष्टा जीवन को सयत बनाती है।
उदारता मनुष्य की महानता है, परन्तु उदारता ममत्व का बलिदान करने पर ही पा सकती है। ममत्व प्राणो के समान प्यारा है। इस भावना का अनुभव किसे नहीं है कि जो मेरा है वह मेरा रहकर ही-पूरा पूरा मेरा रहकर ही-दूसरों का हो सकता है।
हमारी जो विश्व वेदना है, इसे मनुष्य जीत सकता है। उपाय केवल एक ही है। सभी बातो और घटनाओं को दूसरो को प्रांखो से देखना छोड़ कर अपनी आँखों से देखना सीखे।
आ सकती है।
प्यारा है ।
नहीं है कि