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________________ ३५४ अनेकान्त जिस समय पारसदास का जयपुर मे जन्म हुमा, वहां ही नही । हिन्दी को प्राय व नकाएँ ऐसी ही थी । उन्हे का वातावरण टीकामों, वृत्तियों, भाष्यो और वचनिकामों यदि हम प्राधा अनुवाद मूल ग्रन्थ का और भाषा संस्कृत का था। प. बंशीधर, टोडरमल, जयचन्द छाबड़ा, नन्द- वृत्ति का कहें तो ठीक ही होगा। कम-से-कम उनसे लाल, ऋषभदास, रामचन्द आदि इसी क्षेत्र के ख्यातिप्राप्त वचनिकाकार के अपने बहु अध्ययन, बहु श्रुतता, बहु व्यक्ति थे। टीका और वचनिकाएं ढुढारी हिन्दी में लिखी अनुसन्धान और बहु तुलनात्मक दृष्टिकोण की छाप तो जाती थी। दोनों में एक ज्ञात अन्तर था। टीका में मूल नहीं पडती । संस्कृत वृत्तियों की तुलना में वे अधकचरीअन्य के विचार और शब्दों का अनुवाद-भर होता था। सी दिखाई देती हैं। टीकाकार अपनी प्रोर से कुछ घटाने या बढ़ाने को स्वतन्त्र इस सन्दर्भ में जब हम पारसदास का प्राकलन नही था । वचनिका में अनुवाद तो होता ही था, साथ में , • करते है तो कहना होगा कि वे विद्वान नही कवि थे। विश्लेषग भी रहता था। वहा वचनिकाकार अपना मत उनका 'व्याख्याकार' नहीं, अपितु अनुभूति वाला जीव भी स्थापित कर सकता था। प्रबल था। अत: उन्होंने केवल ज्ञानसूर्योदय नाटक और हिन्दी की वनिका संस्कृत मे 'वत्ति' नाम से अभि- 'चविंशतिका' को वनिका रची। एक रूपक है, दूसरी हित होती थी। रूप विधान दोनो का एक था, केवल भक्ति की मुक्तक कृति । दोनों में कवि मुखर है। पहला भाषा का अन्तर था। ब्रह्मदेव ने 'बृहद्रव्य संग्रह' की गद्य में है और दूसरी पद्य में। हिन्दी का प्राचीन गद्य संस्कृत में वृत्ति लिखी है। वह अध्यात्म-परक है, जबकि जन ग्रन्थों को टीकाओं और वनिकायों में ही मिलता द्रव्यसंग्रह द्रव्यानुयोग का ग्रन्थ है। ब्रह्मदेव ने उसे स्पष्ट है। इस दष्टि से वह हिन्दी साहित्य को एक महती देन रूप से प्रध्यात्मशास्त्र कहा है। द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ है। पारसदास की ज्ञानसूर्योदय नाटक की वचनिका इसी माघार-भर हैं, बाकी सब कुछ ब्रह्मदेव का अपना है। रूप में महत्त्वपूर्ण है । वैसे, नाटक या काव्य की वचनिका ब्रह्मदेव की वृत्ति ने मून ग्रन्थ को नये ढाचे मे ढाला है। में वचनिकाकार के लिए अपना देने को कुछ नहीं होता। उसे एक पृथक स्वतन्त्र अन्य कहना चाहिए। पेंनीसवीं वह मलग्रन्थ की अनुभूति को अपनी भाषा में ठीक वैसा गाथा पर उनका ५० पृष्ठों का व्याख्यान ही पृथक ग्रन्थ ही उतार दे,यही बहत कुछ है । यदि उससे यत्किञ्चित् कहलाने का अधिकारी है। वे मूल ग्रन्थ का अनुवाद भी विचलित हुए बिना अपना रंग गहरा भर सका तो वह करते-करते उसमें अपने अध्ययन और उससे सृजित बहुत-बहुत कुछ है। बनारसीदास के नाटक समयसार ने मान्यतामों को भी रक्खे बिना नहीं रहते थे। वे मूल अपना मौलिक अस्तित्व बनाया है। किन्तु बनारसीदास ग्रन्थकार पर छा जाते थे। उन्होंने जैन साहित्य को बहुत और पारसदास के मूलाधार ग्रन्थों मे अन्तर है। बनारसीकुछ दिया है। किन्तु, हिन्दी के वच निकाकार ऐसे दास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार और उस पर व्यक्तित्व को न पा सके। उनमें एक-दो तो हए, अधिकाश प्रमतचन्द्र की टीका को अपना प्राधार बनाया। दोनो संस्कृत वृत्तियों पर आधृत होकर रह गये। उनका पृथक् दर्शन के अन्य थे। उन्हें अनुभूति-परक बनाने मात्र से अस्तित्व भी मूर्धन्य न हो सका। 10 जयचन्द छावड़ा की नाटक समयसार की सत्ता स्वतन्त्र हो गई। वह साहित्य 'बृहद्रव्यसंग्रह' की वचनिका का मूलाधार ब्रह्मदेव की को कोटि में परिगणित हुमा । पारसदास ने जिसे आधार संस्कृत वृत्ति ही है। यदि दोनों की तुलना की जाय तो बनाया वह पहले से ही साहित्य का ग्रन्थ था। अतः उसकी कहना होगा कि कहा ब्रह्मदेव और कहां जयचन्द । मेरी अनुभूति के रंग को और अधिक गाढ़ा करने से ही पारसदृष्टि में यदि पं० जयचन्द छावड़ा ब्रह्मदेव की वृत्ति का दास पृषक सत्ता पा सकते थे। किन्तु वे ऐसा न कर शब्दश: अनुवाद कर जाते तो वह भी हिन्दी साहित्य को सके । उनका हिन्दी गद्य प्रसाद गुण-युक्त है, किन्तु अनुएक बड़ी देन होती। उन्होने ब्रह्मदेव को प्राधार बनाया भूति में अपेक्षाकृत घनत्त्व न पा सका, जो वादिराज के और उनको भी पूरा न उतार सके, अपना तो कुछ दिया पथक अस्तित्व के लिए अनिवार्य था। वादिराज जैसे
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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