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________________ भनेकान्त चवालीस वर्ष की मध्य प्रायु में ही सती साध्वी जीवन भी उनका र वहार मदा गहरी प्रात्मीयता से भरा और मंगिनी का वियोग प्रापके समक्ष संसार की क्षणभगुरता स्नेह पूर्ण रहा। मित्रों और गुणज्ञो के लिए तो उनके मन और एकत्व भावना का प्रतीक बनकर पा खड़ा हुआ। मे बडी ममता थी। बड़े और छोटे का व्यवधान भेंटकर साधारण मनुष्य को पागल बनाकर विचलित कर देने हम लोगों से भी वे ऐसा स्नेह पूर्ण व्यवहार करते थे कि वाले इस मर्मातक प्रसग का विवेकवान वाबू जी ने दूसरा जो कोई एक बार भी उनके सम्पर्क में पाया वह हमेशा ही उपयोग किया। उन्होंने इसे जीवन की सबसे बड़ी हमेशा के लिये उनका हो गया। चुनौती मानकर अपनी शेप प्रायु को सत्सग, साधुसेवा, समाज सेवा, शोध और साहित्य-साधना मे लगा देने का चिरसगी एक्जिमा की मौतक वेदना और दमा के नित्य प्रति के प्राक्रमग से भी वे कभी विचलित या अधीर दृढ निश्चय कर लिया। पत्नी के नाम पर पुप्कल द्रव्य का दान करके उसकी स्मृति को अमर बनाया और उसी नही हुए । एक सच्चे दार्शनिक की तरह रोग के हर क्षण से उस प्रकथ, अथक और मूक साधना में वे लीन उत्पाद को पूर्वोजित असाता कर्म का उदय-उपहार हो गये जिससे उन्हें विमुख करा सकने मे न रोग जन्य मानकर वे अत्यन्त समता पूर्वक भोगते रहे। उनकी सेवा पीडा कामयाब हुई, न बुढ़ापा ही सक्षम सिद्ध हुआ। मे रत भाई अमरचन्द जी ने मुझे उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन पूर्व लिखा था कि "भीषण वेदना में भी उनके मुख केवल मृत्यु ही उनकी उस लगन को तोड़ पाई। से 'उफ' या 'पाह' नही निकलती तथा समता भाव उनका समाज उत्थान के लिए सदैव चितित बाबू छोटेलाल बगबर साथ दे रहा है। जी मन्दिरों, मूर्तियों और तीर्थ क्षेत्रों की व्यवस्था, सुरक्षा मृत्यु की कल्पना ने कभी उन्हें भयभीत या अधीर संचालन के लिये तो प्रहनिशि प्रहरी की तरह तत्पर, नहीं किया। बहुत पहिले से वे मृत्यु का स्वागत करने के सतर्क और सन्नद्ध रहते थे। हर तीर्थ क्षेत्र की प्राय हर लिए तैयार बैठे गुनगुनाया करते थेसमस्या का ज्ञान उन्हें रहता था। समाधान का यथा संभव उपाय भी वे करते थे। समस्या जब तक बनी रहती "जा मरने से जग इरं, मोरे मन प्रानन्द । तब तक उसकी चिंता भी उन्हें बराबर बनी रहती थी। मरने से हो पाइए, पूरण परमानन्द ॥" पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी महाराज के वे परम इस प्रकार मेरा अनुभव है कि स्वर्गीय वाबू जी अपने अनुरागी भक्त थे। उनके भाई श्री नन्दलाल जी पाज भी आप में एक बड़ी सस्था थे । बडे स्नेही पौर हितैपी मित्र व-स्मारक की योजना मे दत्त चित्त होकर लगे है। थे। उनके कार्यों का सही मूल्याकन तो सभवत. अगली वर्णी जी के अन्त समय मे बाबू छोटेलाल जी ने उनकी शताब्दी मे ही हो सकेगा, पर इतना अाज भी कहा जा सेवा-सम्हार जिस भक्ति-भाव-पर्वक, जैसी एकाग्रता से की सकता है कि शोध के क्षेत्र मे उन्होने अपने जीवन से जो है वह देखने वालों के लिए भी गुरुभक्ति का एक आदर्श प्रेरणा दी है वह पाने वाली पीढियो के लिए सीढियो उपस्थित करती है। का काम करेगी। प्राज उनकी पुण्य स्मृति में नत मस्तक म कवल यहा अनुभव कर रहा है किदानवीर धावक शिरोमणि साह शान्ति प्रसाद जी जानरूर जीवन मरण का प्रथ पर बाबू जी का बड़ा स्नेह रहा । बाबू जी के सत्परामर्प मे साह जी ने लाखो रुपयों का दान समाज हित के कार्यों क्षण नहीं खोये जिन्होंने व्यथ । कोति उनकी नष्ट करने हेतुमें किया। साहुजी के अन्तरग और निस्वार्थ हितकारी मार्ग दर्शकों में उनका स्थान प्रमुख था। कुटुम्ब के प्रति मत्यु बेचारौ रही असमर्थ ॥
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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