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________________ "-मेरा स्वभाव अत्यन्त Sensitive (सवेदनशील) प्रति सोच-विचार करते करते अब दिमाग भी पहले जैसा और Irritable (शीघ्र कुद्ध होने वाला) हो गया है, नहीं रहा । धारणा-शक्ति कम होती जाती है। किसी और जरा जरा-सी बात के लिए चिन्तित हो जाता है। प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट प्रब बर्दास्त नहीं शासकर किंचित भी दु.खजनित कार्य में तो मैं इतना होता । स्वभाव भी दीर्घसूत्री और मालसी बन गया है। मधिक विचारयुक्त हो जाता है कि यदि उसे "तिल का अर्थ-सचय और धन-वृद्धि करने की लालसा बनी हुई है। ताई' बनाना कहा जाय तो अनुचित न होगा। मामूली मन में यह धारणा हो गई है कि संसार में प्रर्य विहीन बात को भी एक बार मैं बहुत बड़ी मान बैठता है। जीवन निकम्मा है । बिना 'अर्थ' के कुछ नहीं हो सकता। किन्तु यह सब होते हुए भी. यह सब कष्ट या दुख या अर्थ भी बहुत अधिक होना चाहिए । चिन्ता, मैं केवल अपने ऊपर ही लेता हुअा, मन ही मन इस वर्ष (१९४०) के प्रारम्भ होने के दो तीन मास दुखित होता रहता हूँ। कारण दूर होते ही उनको इतनी पूर्व से ही कई ऐसी बातें हुई-व्यापारिक, पार्थिक, जल्दी भूल जाता है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। विस्मरण गृहस्थी की, शारीरिक, पारिवारिक तथा सामाजिकऐसा होता है कि कुछ स्मृति ही नहीं रहती। कि जिससे बहुत दुखित हो गया । तारीख २२-४-४० को - अपने वैयक्तिक गृहस्थी के काय या भार से सदा दूर जब से मेरी धर्मपत्नी की डाक्टरी परीक्षा में क्षय रोग रहने की चेष्टा करता रहता है। जहाँ तक बना दूर ही बताया गया, तब से दिन दिन दुख बढ़ता ही गया। रहा और टाल करता रहा, जैसे-गृहस्थी के खाने-पीने, तारीख ७.८-४० को, जब उसकी द्वितीय बार एक्सरे वस्त्राभूषण, नौकर-चाकर, लेन-देन प्रादि के कार्यों को परीक्षा हुई और डाक्टरों ने कह दिया कि "क्षयरोग करने में हिचकिचाहट या बुगपन महसूस करता रहा घातक हो चुका है और प्रब बचने की किचित भी प्राशा पौर उन्हें भाररूप एक मझट ही समझता रहा है। भले नहीं है।" उस दिन से मेरी चिन्ताग्रो का, दुख और ही यह पालसी स्वभाव का द्योतक है और कमण्य-भीरुता अशान्ति का ठिकाना नही रहा । मन बहुत ही अधीर हो है । यह सब वैराग्य से नही था। काई इस प्रकार की उठा । मैं कि कर्तव्य-विमूढ़ हो गया और अनुभव करने झझट जब सिर पर भाती थी तो बड़ी बूरी लगती थी। लगा कि मेरे ऊपर दुःख का हिमालय टूटने वाला है। झझट मत्थे देने वाला भी बड़ा बुरा लगता था। बनी मेरा क्या होगा? कैसे मेरा जीवन निर्वाह होगा? बनाई खाने की आदत हो गई थी। इस पर भी यह नही कल तारीख १९-८-४० सोमवार को सन्ध्या के 'कहा जा सकता कि मैं कुछ करता ही नही था, तबियत करीब ६.४० पर उसका देहान्त हुमा मौर मैं यह अनुभव से नही करता था-पर करना पड़ता था तब कभी कभी करने लगा कि समुद्र के बीच में पड़ गया है और मारे करता भी था। अतिथि-सत्कार के अवसर पर इसका चिन्ताग्रो के जला जाता हूँ कि 'अब क्या होगा?' इस ठीक उल्टा होता था, अर्थात् बड़ी लगन से यह सब समय मन में अनेक तरगें उठती हैं। बहुत उथल-पुथल करता था। हो रही है। मन स्थिर नहीं हो रहा । 'अब मैं क्या करूं?' शारीरिक कष्ट सदा ही कुछ-न-कुछ गत दस-बारह यह एक जटिल समस्या उपस्थित हो गई है। मार्ग वर्षों में बना रहता है जिससे किसी भी तरह चंन नही दिखाई नहीं पड़ रहा । सैकड़ों लोग सामाजिक नियमारहती। जब से एग्जिमा हुमा है तब से जीवन बहुत नुसार समवेदना प्रकट करने को पा रहे हैं। नाना प्रकार दुग्वित हो गया है। चिन्ता भी बढ़ गई है और कभी-कभी की बाते कहकर चले जाते हैं। उनकी समवेदना के साथ तो इस बीमारी से तग पा जाता हूँ। ही हृदय में उथल-पुथल होती रहती है। चारित्र मेरा सदा ही सुन्दर रहा है। फिजूलखर्च में इस समय मेरे लिए कई बातें विचारणीय हैकदापि नही रहा और जहाँ तक बना है मितव्ययी रहा १. माता जी प्रति वृद्ध हो गई हैं, तो भी उनमे है। बीमारी के कारण, चिन्तायुक्त स्वभाव के कारण, अभी Energy (शक्ति) है जिससे उनमें अभी जीवन है।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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