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________________ षट्खण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार बालचन्द्र सिद्धन्त-शास्त्री [श्री प्रा. शा. जिनवाणी जीर्णोद्धार सस्था-फल- धवला टीका मे संक्षेप से कर दी है२ व उसका नाम टण द्वारा प्रकाशित षट्खण्डागम के परिशिष्ट में देने के उनके द्वारा 'सत्कर्म' रखा गया प्रतीत होता है । ये १८ उद्देश से प्रकृत निबन्ध लिखा गया था। सोलापुर रहते अनुयोगद्वार सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योडाहए मेरे द्वाग उक्त पट्खण्डागम का प्राय: समस्त कार्य रक फण्ड द्वारा प्रकाशित धवला-युक्त षट्खण्डागम की सम्पन्न हुपा है। परन्तु जब वह कार्य समाप्तप्राय था १६ जिल्दों में से अन्तिम १५ व १६वीं जिल्दों में प्रकातब कुछ ऐसी खेदजनक परिस्थिति निमित हुई कि अन्तत. शित हो चुके हैं। उक्त १८ अनुयोगद्वारो में निवन्धन, मुझे उसमे विराम लेना पड़ा। अत यह उममे नही दिया जा सका। पूर्व किरण में दिया गया 'पट् खण्डागम-परिचय' उपलक्षित है। उस सब का त्याग साधु के लिए भी उसकी प्रस्तावना एक प्रश था ।। अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में भगवती-पाराधना में अनेकान्त की पिछलो किरण (३, वर्ष १६, पृ २२०) निम्न गाथा उपलब्ध होती हैमे षट् वण्ड गम का परिचय कराते हुए यह लिखा जा देमामासियसुत्तं प्राचेलक्क त्ति तंख ठिदिकप्पे । चुका है कि उक्त ग्रन्थ की रचना महाकमप्रकृतिप्राभूत लुतोऽत्य आदिसद्दो जह तालालबसुनम्मि ॥११२३. के उपसहार रूप में की गई है। परन्तु उसमे महाकर्म एनदुक भवति- चेलग्रहणं परिग्रहोपप्रकृतित्राभूत के कृनि वेदनादि २४ अनुयोगद्वारो मे केवल लक्षणम्, तेन सकलग्रन्थत्याग ग्राचेलक्य-शब्दस्यार्थ प्रारम्भ के ६ अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है, इति । 'तालपलंब ण कप्पदि त्ति' मूत्रे ताल-शब्दो न शेष (७-१८) निबन्धन प्रादि १८ अठारह अनुमोगद्वारों तरुविशेषवचन', कितु वनसत्येकदेशस्तरुविशेष उपकी वहां प्ररूपणा नहीं की गई। ऐसी स्थिति मे उन १८ लक्षणाय वनसतीना गृहीतम् । तथा चोक्त कप्पेअनुयोगद्वागे की प्ररूपणा के बिना प्रकृत पट्खण्डागम हरिततणोसहि-गुच्छा गुम्मा वल्ली लदा य रुक्खा य । अपूर्ण-सा रह जाता है । इस पर विशेष ध्यान देते हुए पट्- एव वणप्फदीनी तालोद्दे सेण प्रादिद्वा ।। खण्डागम के प्रमुख टीकाकार श्री प्रा. वीरमेन स्वामी ने (विजयोदया टीका) उसके अन्तिम सूत्र (५,६,७६५ पु.१४ पृ. ५६८) को देगा ठीक इसी प्रकार से भगवत भूतबलि द्वारा प्रकृत मर्शक १ मान कर उन शेप अनुयोगद्वारो की प्ररूपणा अपनी पट्खण्डागम में की गई कृति प्रादि ६ अनुयोगद्वारो १. जहा प्रकृत विषय को प्ररूपणा देशत. करके शेष की प्ररूपणा उन शेप १८ अनुयोगद्वारों को उपलक्षण सब प्ररूपणा की सूचना अन्तहित 'पादि' शब्द के भूत जानना चाहिए। द्वारा की जाती है वह देशामर्शक मूत्र कहलाता है। २. भूदबलिभडारएण जे गेदं सुत्त देसामासियभावेण जैसे स्थितिकल्प में-मुमुक्ष को कर्तव्यविधि में लिहिदं तेणेदेण मुनेश मूचिदमेस प्रहारमप्रणियोगप्राचेलक्य' सूत्र प्रवृत्त हुप्रा है। उसमें गृहीत 'चेल द्दाराण किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो। (वस्त्र)' शब्द से वस्त्रादि समस्त परिग्रह का ग्रहण धवला पुस्तक १५, पृ०१ अभीष्ट है। मथवा-'तालप्रलम्ब' सूत्र मे 'ताल' ३. वोच्छामि संतकम्मे पचि[जि] यस्वेण विवरण शब्द से ताल वक्ष प्रादि समस्त हरित्काय (सचित्त) सुमहत्थं ॥ संतकम्मपंजिया-धवला पु०१५, पृ० १
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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