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________________ कुछ पुरानी पहेलियां डा० विद्याधर जोहरापुरकर मत्रहवी शताब्दी के कवि ज्ञानसागर के बारे में नारि एक नर एक एक नपुंसक मिल कर। भनेकान्त मे एकाधिक बार चर्चा हो चुकी है। वे काष्ठा- पुत्र नपुंसक हुनो सा जनकू सो सुनकर ॥ सघ नन्दीतटगच्छ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य थे। दृढ मुद्रा बलवंत नवि हिंडो ते पालो। उनकी कई स्फुट रचनामो का संग्रह हमारे संग्रह की एक द्रव्य कोडिमें रहे गढ मंदिर रखवालो ।। हस्तलिखित पोथी में है। इन में से सपाष्टक शीर्षक चतुर विचक्षण कामिनी तास बंप छोड़े निखिल । रचना कुछ समय पहले अनेकान्त (दिसम्बर १९६४) मे ब्रह्मज्ञानसागर वदति अब विचारोभर सकल ॥३॥ जैन संघ के छ: प्रग' शीर्षक लेख मे हमने प्रकाशित की थी। इस लेख में इसी हस्तलिखित पोथी का एक और नरथी नर उतपन्न चरण पकीने छेचो। अंश दिया जा रहा है। पोथी मे इसका शीर्षक 'हरिप्रालि डरतो जल में पेठ मंगो भंग भयो । कवित्तानि' दिया हुआ है। इसमें छप्पय छन्द के १८ पद्य तस घर में एक नार तेन नपुंसक जायो। है। यद्यपि इसमें कई शब्द गुजराती के है तथापि पुरानी तेहथें नारि सुजाणि नारिय पुरुष कहायो। हिन्दी के क्षेत्र मे वे अपरिचित नही हैं। प्रत्येक पद्य में काजी मुल्ला राय मुनि षट्दर्शन जन कर परे। एक पहेली है जिसका उत्तर पद्य के बाद बता दिया गया सुजन विचक्षण अर्थवो ब्रह्मज्ञान इम उच्चरे ॥४॥ है। इस मनोरजक रचना का मूल पाठ मागे दिया जा कागल रहा है। एक प्रचेतन नारि तास सिर चार बताणो । अथ हरिप्रालि कवित्तानि लिल्यते॥ नवरगी गुणबार भुजा चार तस जाणो॥ एक अचेतन पुरुष नाम वो अक्षर कहिये। पेहरे वस्त्र सुरंग सोभागी धरि चंगह। काया तो तस एक सीस केइ लाज लहिये । सवि जन सुखकार पाय तस चार उतंगह। खाय गयो पायाल उच गगने जइ अडियो । बह मंदिर निवसे सवा पर बरणे चाले सही। पर उपकारां काज सूर सुभटांसू लडिमो॥ चतुर लोक सवि अर्थवो ब्रह्म ज्ञानसागर कही ॥५॥ हारे नहि जो सिर धणी ववन तास विहसे नही। पलंगडी कहता जन इम उच्चरे सो यह अर्थ लाभे कही ॥१॥ श्यामल वर्ण शरीर जाति नपुंसक जाणो । कोट दुक्ला सहे जब बहुत तब नारीपण ठाणो॥ नर नारी बोउ लडत उतपन्नी एक नारी। नित सेवे नारीमाहि नर उपरीना से। हस्त पाय सिर रहित नहि हलकी नहि भारी॥ भोगी योगी सब लोक राय रंक घरि पेसे। रोता राखे बाल राजसभा जइबसे। देश देशांतर संघरे पुर पुर घरिपरि सही। मुखविन वचन ववंत गीत गाम विच पेसे। प्रर्य करो नर चतुर भविब्रह्म शानसागर कही॥६॥ मुसयें नारी नौकसे तब निश्चय अवतार तस । मर्थ विचारो चतुर नर ब्रह्मज्ञान कहे बचन रस ।२।। गरपी नर गुणवंत ते नर नपुंसक जायो। चावडी नारितने संयोग तेन मारिपन पायो।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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