SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत बंग प्रवन्धकाव्यों में प्रतिपादित शिक्षा-पद्धति साधक बन कर साधना करता है, उसी को सरस्वती की उपलब्धि होती है। बहुमुखी प्रवृत्ति शिक्षा ग्रहण करने में अत्यन्त बाधक है। अतएव शिक्षार्थी मे गुरुसेवा, विनय, ब्रह्मचर्य, एकाग्रता, निरलसता एव परिश्रम इन गुणो का होना परम प्रावश्यक है । गुरु या शिक्षक की योग्यता शिक्षाथी मे गुणों का होना जिस प्रकार प्रावश्यक है, उसी प्रकार शिक्षक मे वैदुष्य, सहानुभूति प्रादि गुणो का रहना आवश्यक है। कवि वादीसह ने शिक्षक की योग्यता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है रत्नत्रयविशुद्धः सन् पात्र स्नेही परार्थकृत् । परिपालितधर्मा हि भवान्धस्तारको गुरुः ।। क्षत्र : २।३० रत्नत्रयधारक श्रद्धावान् ज्ञानी और चरित्रवान सज्जन, शिष्य से स्नेह करने वाला, परोपकारी, धर्मरक्षक और जगतारक गुरु शिक्षक होता है। कवि बादर्भासह ने शिक्षक को विषय का पण्डित होने के साथ चरित्र गुण से विभूषित माना है जिसका चरित्र निर्मल नही, यह क्या शिक्षा देगा? ज्ञानी होने के समान ही परिनिष्ठ होना भी शिक्षक के लिए आवश्यक है। शिष्य से प्रेम करना, उसकी उन्नति की इच्छा करना, अच्छे संस्कार उसके ऊपर डालना, उसको बौद्धिक प्रात्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना तथा सभी प्रकार से सावधानी पूर्वक विकास करना शिक्षक के कर्तव्यों में परिगणित है। संस्कृत जैन काव्यो में प्रयुक्त पात्रो के शिक्षक निर्लोभी निस्वार्थी और कर्तव्य परायण परिलक्षित होते है। पार्य नन्दी जीवन्धर कुमार को अपना इतिवृत्त सुनाते हैं और उसे ज्ञानी तथा विद्वान् बनाने के अतिरिक्त खोये हुए पिता के राज्य को पुन हस्तगत करने की विधि भी समझाते हैं। इतना ही नही कत्तव्य और अधिकारो का उद्बोधन करते हुए उसे समय को प्रतीक्षा करने का प्रादेश देते है । गुरु-शिक्षक के गुणों के सम्बन्ध में शान्तिनाथ परित में भाता है"शेपचार नागमतस्वदर्शिता" (शांति० १११२९) समस्त शास्त्र भागम पुराण और इतिहास आदि की जानकारी गुरु के लिए प्रावश्यक है । शिक्षक दो प्रकार के होते थे- प्रग्रन्थ र निन्य । १११ सग्रन्थ से तात्पर्य उन शिक्षकों से है, जो वस्त्र धारण करते थे धीर वेव-वेदांग के निष्णात विद्वान थे। गृहस्थी में निवास करते थे, जिनकी धाजीविका छात्रों द्वारा दी गयी दक्षिणा प्रथवा राजानो द्वारा दिये गये वेतन से सम्पादित होती थी। इस प्रकार के शिक्षक सपरिवार रहते थे, इनके पुत्र-पुत्री एवं पौत्रादिक भी साथ में निवास करते थे। ज्ञानी, चरित्रनिष्ठ होने के साथ छात्रों की उन्नति की कामना करना तथा उन्हें योग्य विद्वान बनाना उनका लक्ष्य था | शान्तिनाथ चरित में निबद्ध सत्यकि प्रध्यापक का प्राख्यान इस बात पर प्रकाश डालता है कि गुरु का दायित्व शिष्य का सर्वाङ्गीण विकास करना था। शिष्य भी प्रत्येक सभव उपाय द्वारा गुरु की सेवा कर अपने भीतर ज्ञान और चरित्र का विकास करता है ।१ निर्ग्रन्थ गुरु प्रारम्भपरिग्रह मे रहित होकर किसी चैव या वन मे निवास करते थे। कुछ शिष्य इनके पास रहकर तत्वज्ञान पौर ग्रागमी का अध्ययन करते थे। अध्यापन के बदले में ये किसी से कुछ भी नहीं लेते थे। शिक्षा संस्थाओं के भेद हमे काम्पों में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाची का निर्देश मिलता है। प्रथम प्रकार की वे सस्थाएँ थी, जो तापमियों के प्राश्रम में गुरुकुल के रूप मे वर्तमान थीं । इस प्रकार की शिक्षा सस्थाप्रां मे प्रायः ऋषिकुमार ही अध्ययन करते थे | धन्य नागरिक छात्र कम ही मध्ययन के लिए पहुंचते थे। युवक तपस्वी भी अध्ययन कर अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे । साधना कर प्रात्म-शोधन करना ही इस प्रकार की शिक्षा संस्थाओं का उद्देश्य था । कमठ जिम प्राश्रम में पहुंचा था, वह भी इस प्रकार का प्राथम था। प्रधान ज्ञानी तपस्वी उस प्राश्रम का कुलपति होता था । अध्ययन करने पर भी यह पता नही चलता है कि इस प्रकार के गुरुकुलों में कितने अध्यापक होते थे मौर कितने पियो का प्रध्यापन किया जाता था |१ १. शान्तिनाथचरित मुनिभट मूरि, प्र० चन्द्र धर्मादय प्रेम, बनारस, की० मि० २४३७, सर्ग १ प्लां० १११-१६० २. पार्श्वनाथचरित द्वितीय सर्ग 3
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy