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अन्य संग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार
उल्लेख मृतिकार ने उत्पानिका वाक्य में दिया है। मुनि सुव्रत तीर्थंकर की वह प्रभावशालिनी मूर्ति उनके तथा भव्यों के विवेक जागृत करने में निमित्त रही है। जिसके दर्शन से भव्यजन अपनी भूसी धात्म-निधि को पहचानने में समर्थ हो सके हैं।
पतन के मुनि द्रव्यसंग्रह की
भयभीत, सुधारस
वृत्तिकार ब्रह्मदेव ने उसी प्राथम सुव्रत चैत्यालय में अध्यात्म रस गर्भित उपत महत्वपूर्ण व्याख्या की है। ब्रह्मदेव अध्यात्मरस के जाता थे, धौर प्राकृत संस्कृत तथा प्रपभ्रंश भाषा के विद्वान थे । सोभनाम के राजश्रेष्ठी, जिसके लिये मूल ग्रन्थ और वृत्ति लिखी गई, प्रध्यात्म रस का रसिक था; क्योंकि शुद्धात्माम्य की संवित्ति से उत्पन्न होने वाले सुखामृत ' के स्वाद से विपरीत नारकारिदुःखों से तथा परमात्मा की भावना से उत्पन्न होने वाले का पियासु या धौर भेद प्रभेदरूप] रत्नत्रय ( व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रय) की भावना का प्रेमी था। ये तीनों ही विवेकी जन समकालीन और उस भाश्रम स्थान में बैठकर तत्व चर्चा में रस लेने वाले थे क्योंकि उपरोक्त घटना क्रम धाराधिपति राजा भोज के राज्यकाल में घटित हुआ है। भोजदेव का राज्यकाल सं० १०७० से १११० तक रहा है। अतः ब्रह्मदेव की टीका धौर द्रव्य संग्रह दोनों ही भोज के राज्यकाल में रचे गये हैं । प्रतः उनका समय भी वही होना चाहिए। अर्थात् वे विषम की ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध धौर विक्रम की १२वीं शताब्दी के प्रथमचरण के विद्वान् जान पड़ते हैं ।
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डा० विद्याधर जोहरापुर करने तो यहाँ तक कल्पना की थी कि पहले इनका नाम जयसेन होगा और बाद मे ब्रह्मदेव हो गया हो । पर यह कोरी कल्पना ही थी, जिसका निरसन 'शोध-कण' नामक लेख में किया गया है१ ।
डा० ए० एन उपाध्याय भी ब्रह्मदेव को जयसेन के बाद का विद्वान् बतलाते हैं१। पर ऐसा नहीं है जैसा कि आगे के विवरण से स्पष्ट हो जायगा । डा० साहब ने परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना में लिखा है जिसका हिन्दी धनुवाद १० कैलाशचन्द जी के दो से इस प्रकार हैशब्दो १. देखो परमात्म प्रकाश प्रस्तावना अंग्रेजी पृ० ७२
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"किन्तु एक बात सत्य हैं कि ब्रह्मदेव पारा के राजामीन से, जिसे वे कलिकाल चक्रवर्ती बतलाते हैं बहुत बाद में हुए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि महादेव के भोज मालवा के परमार और संस्कृत विद्या के प्राश्रयदाता प्रसिद्ध भोज ही हैं। भोजदेव का समय ई० १०१००१०६० है महादेव का उल्लेख बतलाता है कि वे ११वीं शताब्दी से भी बहुत बाद में हुए हैं।" (हिन्दी अनुवाद पृ० १२६-७)
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डा० साहब का यह निष्कर्ष ठीक मालूम नहीं होता कि वे भोजदेव से बहुत बाद हुए हैं। ऐसी हालत मे जबकि वे उसके राज्य का एस्लेख कर रहे हों तब उन्हें बहुत बाद का विद्वान् बतलाना किस तरह समुचित कहा जा सकता है । जबकि ऊपर स्पष्ट रूप से यह वतलाया जा चुका है कि मूल द्रव्यसंग्रह और उसकी वृत्ति दोनों ही राजाभोज के राजकाल मे रखे गये हैं। और जिस स्थान पर रचना हुई उसका भी स्पष्ट निर्देश ऊपर किया जा चुका है और इतिहास से भी जिसकी पुष्टि हो गई है। ऐसी स्थिति में महादेव को भोज के बहुत बाद का विद्वान् नहीं बत लाया जा सकता, किन्तु ब्रह्मदेव को भोज के समकालीन विद्वान् कहा जा सकता है ।
अब रह गई जयसेन की बात, सो जयसेन ब्रह्मदेव से पूर्ववर्ती विद्वान नही हो सकते। वे ब्रह्मदेव के बाद के विद्वान हैं। क्योंकि जयसेन ने पचास्तिकाय की पहली गाथा की टाका मे प्रथ के निमित्त की व्याख्या करते हुए स्वयं उदाहरण के रूप में सग्रह वृति के निमितकथन की बात को अपनाया है, और लिखा है कि"मथ प्राभुत ग्रंथे शिवकुमार महाराजो निमित्तं धन्यत्र द्रव्य संग्रहादोसोम श्रेष्ठघावि ज्ञातव्यं ।" इससे स्पष्ट है कि जयसेन ब्रह्मदेव के निमित्त कथन की बात से परिचित थे। प्रतएव वह ब्रह्मदेव के उत्तरवर्ती विान् ज्ञात होते है । न कि पूर्ववर्ती, हां जयसेन की टीकाओं पर ब्रह्मदेव का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। ब्रह्मदेव ने जयसेनका कही उल्लेख नहीं किया और न उनकी टीका का ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि ब्रह्मदेव जयसेन के उत्तरवर्ती है। जब कि ब्रह्मदेव का समय भोजकालीन है, तब उसे