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________________ अनेकान्त राज्य-शासन में रहा है। चर्मणवती नदी कोटा और बूंदी था और तत्वचर्चा का प्रेमी था। वृत्तिकार का यह सब की सीमा का विभाजन करती है। इस चम्बल नदी के कथन ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है और किनारे बने हुए मुनि सुव्रतनाथ के चैत्यालय में, जो उस बिल्कुल सही है। समय एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध था। और अनेक विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान मुनि मदनकीति दूर देशों के यात्रीगण, धर्मलाभार्थ वहाँ पहुँचते थे । नेमि- की शासनचतुस्त्रिशिका के निम्न पद्य में इस तीर्थस्थानकी चन्द्र सिद्धान्तदेव, भोर ब्रह्मदेव वहाँ रहते थे। सोमराज एक घटना का उल्लेख किया है उसमे बतलाया गया है कि श्रेष्ठी भी वहां प्राकर तत्त्वचर्चा का रस लेता था। वह उस जो दिव्यशिला सरिता से पहले पाश्रम को प्राप्त हुई, उस समय पठन-पाठन और तत्त्वचर्चा का केन्द्र बना हमा था, पर देवगणो को धारण करने वाले विप्रो के द्वारा क्रोधवश विक्रम की १३वीं शताब्दी मे उसकी खूब प्रसिद्धि रही है। प्रवरोध होने पर भी मुनिसुव्रत जिन स्वय उस पर स्थित उस चैत्यालय में बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की हुए-वहां से फिर नही हटे, मोर देवों द्वारा प्राकाश मे श्यामवर्ण की मानव के पादमकद से कुछ ऊंची सातिशय पूजित हुए वे मुनिसुव्रत जिन ! दिगम्बरों के शासन की प्रशान्त मूर्ति विराजमान है। यह मन्दिर प्राज भी उसी जय करें। अवस्था मे मौजूद है, इसमें श्यामवर्ण की दो मूर्तियां और पूर्व याऽऽश्रममाजगाम सरिता नाथाम्युदिव्या शिला, विराजमान हैं। सरकारी रिपोर्ट में इसे 'भुई देवरा' के नाम तस्या देवगणान् द्विजस्य दधतस्तस्थौ जिनेशः स्वयं । से उल्लेखित किया है। क्योंकि वह पृथ्वीतल से नीचा है, कापात् विप्रजनावरोधनकरर्देवैः प्रपूज्याम्बरे । उसमें पाठ स्तम्भों की खुली एक चौरी के मध्य भाग से दध्र यो मुनिसुव्रतः स जयतात् दिग्वाससा शासनम् ॥२८ नीचे जाने के लिए सीढ़ी है। इस मन्दिर मे मुनिसुव्रत - इससे इतना तो स्पष्ट है कि माश्रम पत्तन में कोई नाथ की मूर्ति के नीचे एक लेख प्रकित है, पर दुःख के खास घटना घटित हुई है, इसी से वह अतिशय क्षेत्र रूप साथ लिखना पड़ता है कि जनता ने उसे सुन्दरता की में प्रसिद्ध रहा है और कोटा-बूंदी आदि स्थानों की जैन दृष्टि से टाइलो से ढक दिया है, यह कार्य समुचित नहीं जनता उसे तीर्थरूप में बराबर मानती और पूजती रही कहा जा सकता। हमें उसे निकाल कर उस मूति के है। निर्वाणकाण्ड की निम्न गाथा में उसका उल्लेख हैमहत्व से बढ़ाने का यत्ल करना चाहिय। उसस यह 'अस्सारम्भे पट्टण मुणिसुव्वय जिण च वन्दामि' वाक्य में निश्चित हो सकेगा कि यह सातिशय मूर्ति कब और पाश्रम पट्टण के मुनिसुव्रत जिन की वन्दना की गई है। किसके द्वारा प्रतिष्ठित हुई है। उसके इतिहास का मुनि उदयकीति ने अपनी निर्वाण भक्ति मे-'मुणिसुव्वउ उद्घाटन एक महत्वपूर्ण कड़ी होगी। यह मन्दिर लगभग गमग जिणुतह पासरम्भि' रूप से उल्लेख किया है और ब्रह्मदेव एक सहस्र वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। यह स्थान हिंदुओं ने अपने स्तवन में पाश्रम के मुनि सुव्रत जिन की स्तुति की और जैनियों का तीर्थस्थान है। १७वी शताब्दी मे केशोगय है और भी जैन साहित्य के पालोडन करने से अन्य अनेक मन्दिर के बन जाने से उसकी प्रसिद्धि केशोराय पत्तन के उल्लेखों का पता चल सकता है। इस सब कथन से उक्त नाम से हो गई है। यह स्थान मालवाधिपति राजा भोज स्थान की महत्ता का सहज ही प्राभास हो जाता है। के अधिकार में था और श्रीपाल नाम का राजा उनका द्रव्य मंग्रह के प्रस्तुतकर्ता नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक मालव प्रान्तीय पासक था, जो उस पर शासन करता था। मोर निवासी थे। पापने अपने प्रवस्थान से उक्त माधम सोम नाम का राजश्रेष्ठि उसके भाण्डागार प्रादि अनेक पत्तन को पवित्र किया था और अनेक भव्य चातको को नियोगों का अधिकारी था, जो जैनधर्म का परमश्रद्धालु ज्ञानामृत का पान कराया था। मुनि नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक इसी किरण मे १०७. पर मुद्रित है। वीरवाणी ने पहले सोमवेष्ठि के लिए २६ गाथात्मक पदार्थ लक्षण' स्मारिका में प्रकाशित दीपचन्द पाण्डपा का लेख रूप लघु द्रव्य संग्रह रचा, मौर बाद में विशेष तत्त्व पृ० १०६। परिज्ञानार्थ ५८ गाथात्मक द्रव्यसग्रह की रचना की, जिसका
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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