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अनेकान्त
सहारनपुर मे उसकी एक प्रति नागरी लिपि में भी अन्य प्रतियां नागरी लिपि में तैयार हुई हैं उनमें तो उनसे तैयार करा ली गई थी। उसके माधार से उसकी येन केन भी अधिक गठभेद होना सम्भव है। उक्त प्रतियों में इस प्रकारेण कुछ थोड़ी-सी अन्य प्रतियां भी नागरी लिपि मे प्रकार के जो पाठभेद हुए हैं उनमे उदाहरण के रूप में तैयार हो सकी, जो वर्तमान मे पारा, सागर, अमरावती, कुछ का यहाँ उल्लेख कर देना उचित होगा। यथाकारजा, बम्बई और झालरापाटन मादि नगरो में विद्य
१ सूत्र १.८, ४१ (पु० ५ पृ० २६८) में "तिरिक्खमान हैं।
पंचिदय-तिरिक्ख-पंचिंदियपज्जत्ततिरिवख-पचिदियजोणिप्रतियों में पाठभेद
णीसु' पाठ प्रतियो मे (अमरावती. कारजा और पारा)
उपलब्ध हुना है जो इस प्रकार होना चाहिये थाग्रंथ में मुख्यता से कर्म का विवेचन विस्तारपूर्वक
तिरिक्त्र-पचिदियतिरिक्ख-पचिदियति रिवखपज्जत्त-पचिकिया गया है। यह विवेचन वहाँ अतिशय व्यवस्थित एवं
दियतिरिक्खजोणिणीसु४ ।। नियमित पद्धति के अनुसार गुणस्थान और मार्गणाओं के माधार से सुन्दरतापूर्वक किया गया है । उक्त विवेचन में
२ सूत्र १.८, ३४६ (पु० ५ पृ० ३४४) की प्रतियों वहाँ यथाप्रसग केवल अनेक शब्दो का ही पुनरावर्तन नहीं
मे 'अप्पमत्तसजदा अणुवममा मखेज्जगुणा' पाठ उपलब्ध हुमा, बल्कि अनेक सूत्रो का भी प्रावश्यकतानुसार यत्र तत्र
हमा है, पर वह 'अप्पमत्त मजदा अक्खवा अणुवसमा पुनरावर्तन हा है१ । ऐसी अवस्था मे लेखक के पर्याप्त सखेज्जगुणा'५ ऐसा होना चाहिए था। मावधानी रखने पर भी यदि कुछ शब्द या वाक्य प्रतियो ३. सूत्र १, ६.६, ४, मे (पु० ६ पृ० ४१६) में लिखने से रह गये हैं या वे दुवारा लिखे गये हैं तो यह 'ता अतोमहत्तप्पटुडि जाव तप्पाप्रोग्गअंतोमुहत्त उवरित' अस्वाभाविक नही है । ऐसे पाठभेद तो उसके ऊपर धवला यह पाठ प्रतियों में उपलब्ध होता है, पर फोटो प्रति में ६ जैसी महत्वपूर्ण टीका के रचयिता प्राचार्य वीरसेन स्वामी वह 'जाव उवरि०' ऐमा पाया जाता है जो शुद्ध प्रतीत के समक्ष भी विद्यमान थे, जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी होता है। इन धवला टीका में जहाँ-जहाँ किया भी है२ । वर्तमान मे -- जो धवला टीका युक्त तीन कानही लिपिवाली प्रनिया ४ फोटो प्रति (४३।८।२) में वह इसी प्रकार से पाया मूडबिद्री में सुरक्षित है उनमे भी स्थान स्थान पर अनेक
भी जाता है।
यहां यह स्मरणीय है कि धवला, जयधवला और पाठभेद उपलब्ध होते हैं । फिर उनके आधार से जो
महाबन्ध की जो कानडी लिपि में प्रतिया मूडबिद्री १ देखिये अन्तरानुगम (पु० ५) सूत्र ६, २५, ३२,
में विद्यमान है उन सब के फोटो लिए जा चके है। ४३ व ७६ तथा ८, ११ व १५ आदि ।
उनमें से धवला के फोटो फलटण से जैन सस्कृति२ केसु वि सुत्तपोत्यएसु पुरिसवेदस्सतरं छम्मासा ।
सरक्षक सघ-शोलापुर में पहुँचे थे व लेखक ने कानडी धवला पु० ५ पृ० १०६,
लिपि के जानकार श्री पं० चन्द्रराजय्या के साथ श्री अप्पमत्तदाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योहारक फंड कार्यावोच्छिज्जदित्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलब्भइ ।
लय द्वारा प्रकाशित धवला की १६ जिल्टो मे प्रथम धवला पृ० पृ. ६५।।
जिल्दों का मिलान कर पाठभेद लिए थे उन्ही के केसु वि सुत्तपोत्थएसु बिदियमत्थमस्सिदूण परुविद- आधार से यहां फोटो प्रति के पाठभेदों का सकेत अप्पाबहगाभावादो च । धवला पु०८पृ० ३.२। किया गया है।
केसु वि सुत्तपोत्थएम् एसो पाठो । घवला पु०१४ ५ फोटो प्रति (४६।४।१०) मे वह इसी प्रकार से पृ० १२७ ।
पाया भी जाता है। ३ देखिये धवला पु. ३ का परिशिष्ट पृ. २०-४२। ६ फोटो ५६मा