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________________ ६२. । सच्चक, इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ को अंगुत्तर निकाय में पुरिसाजानीय कहा है। उनके चातुर्यामसंबर सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है२ वप्प ( ० २,१६६), उपालि (म० १,१०१) समय (म० १,३९२), अग्निवेस्सायन [was ( म० १,२३७ ) दीघतपस्सी (म० १३०१) प्रादि पार्श्वनाथ सम्प्रदाय के अनुपायी रहे हैं। महावीर को वहाँ निगड नातपुत कहा गया है। पावा मे महावीर की मृत्यु का भी उल्लेख है ३ । सम्प्रदाय भेद की भी इसी प्रसग मे चर्चा की गई है । पालि साहित्य में निगण्ड नातपुत्त के विचारों का ही उल्लेख अधिक मिलता है। जैन साहित्य और उसके माचायों तथा बौद्ध साहित्य और उसके प्राचार्य एक दूसरे से पर्याप्त प्रभावित रहे है। जैन भागम साहित्य को बौद्ध भागम साहित्य-त्रिपिटक से और जैन स्वाय साहित्य को बौद्ध न्याय साहित्य से तुलना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है । "यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बुद्ध काल मे जैनधर्म कां केन्द्र मगध४ रहा है या दूसरे शब्द] म कहे तो उत्तर भारत । कोसल५, सावत्था ६, कपिलवत्थु ७ देवदह, प वेसाली, ६ पावा, १० आदि स्थानो पर जैनधर्म अधिक प्रचलित था। बाद मे उत्तर में शिशुनाग नन्द, मौय, खारवेल, गुप्त, प्रतिहार परमार, चन्दन, कच्छपट, प्रादि राजाओ ने जंनधम को प्रश्रय दिया। गुजरात, १. अंगुत्तर. १,२६० २. दीघनिकाय, सामफलत अनेकान्त ३. दीपनिकाय, १,४७ ३,११९ मज्झिम, २,२४४ ४. मज्झिम १,३१,३०० र १,२२० उपानि, प्रभवराज कुमार गामिनी की घटनाएँ यही हुई। ५ सयुक्त, १,६८ मज्झिम, १२०५ आदि । ६. धम्मपद घटुकथा, १,३५७० २,२५ ७. मज्झिम, १,६१ ८. मज्झिम, २,२३४ १,२२०, विनय, २३३, मगुत्तर ४,१०८ १० मक्किम २,२४३ काठियावाड़, तथा दक्षिण मे विदर्भ, महाराष्ट्र, कोकड़ मान्ध, कर्णाटक, तमिल, तेलगू और मलयालम सभी प्रदेशो मे भी जंनथम का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। यही से जैनधर्म बोसका मे पहुँचा जहाँ लगभग श्रीलंका वीं शती तक उसका अस्तित्व बना रहा११ जैनधर्म के नाम पर कुछ भी नहीं है। रहकर वहाँ स्वयं देखा और अध्ययन किया है। (ग) बौद्धधर्म और उसका साहित्य । वर्तमान में वहाँ यह मैंने दो वर्ष । बौद्धधर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध निःसन्देह इतिहास पुरुष रहे है। जन्मतः उनमे महापुरुष-लक्षण अभिव्यक्त हुए थे राजकुल में जन्मजात इस लोकोत्तर व्यक्ति के हृदय में सासारिक विषय-वासनाओं के प्रति तीव्र घृपा घर कर गई थी । फलतः अभिनिष्क्रमरण कर छः वर्ष तक कठोर तपस्या की और तत्कालीन प्रचलित सभी सम्प्रदायो मे दीक्षित होकर ज्ञान प्राप्ति की चेष्टा की विफल होकर मध्यममार्गी बन चतुरायं सत्य-ज्ञान पाया और नये धर्म की स्थापना की । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दर्शनसार [६-६] के अनुसार बुद्ध ने कुछ समय तक जैन दीक्षा ली थी। उस समय उनका नाम पिहितास्रव था । कालान्तर मे मास भक्षण करने से वे पदच्युत हो गये जौर बौद्धधर्म की स्थापना की। इसके अनुसार उनके माता-पिता का पार्श्वनाथ धनुयायी होना अनुमानित है। कुछ भी हो, बौद्धधर्म के सिद्धान्तो की जैन सिद्धान्तों से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध निगष्ठ नात पुत्त से अधिक प्रभावित रहे। जहा कहीं उन्होंने निगष्ठ नात पुस को अन्य तीर्थको की अपेक्षा अधिक आदर भी व्यक्त किया है । १२३४ मक्किम ० १,४५०, गुलर, ११. महावंस, १०, १००-११ ३२४३-४४ १३.७१ महावश टीका, पृ० ४४४ १२. मज्झिम० २.१३२,२१४ बौद्ध साहित्य मुख्यतया दो भागो मे विभाजित है१२ । १-पालि साहित्य (क) पिटक साहित्य, (ख) अनुपक साहित्य, (ग) पिटकेतर साहित्य, २ बोड सस्कृत-साहित्य हीनयान और महायान । पिटक साहित्य श्रीलका मे मौखिक परम्परा के अध्ययन से ८४ ई० पू० तक सुरक्षित
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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