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________________ बीड-साहित्य में जनधर्म रहा । वहीं बलगम्ब राजा के राज्य में उसका लेखन कार्य तथा पोट्रावाद सुत्ता में वरिणत मात्मा विषयक सिद्धान्त हुना। यह निश्चित है कि इतने अन्तराल मे पिटक में जैन सिद्धान्त प्रासानी से खोजा जा सकता है । निश्चयसाहित्य में अनेक बातें जोड़ दी गई होगी और उसमे से नय और व्यवहार नय का यदि माश्रय लें तो एतद्विषयक कुछ पृथक भी कर दी गई होगी। अनेक उद्धरण मिल जाते है। बुदघोष ने जैन सिद्धान्त के पालि साहित्य में सुत्त पिटक और विनय पिटक अनुसार प्रात्मा को भरूपी बताया है५ । विज्ञप्ति मात्र से जैन सिद्धान्तों को खोजने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सिद्धि (पृ०७), तत्वसमह६ तथा हेतुविन्दु टीका में इस कुछ अट्ठकथाए भी प्रस्तुत अध्ययन के लिए देखना आवश्यक सिद्धान्त की पालोचना की गई है । हो जाता है । अभिधम्म पिटक मे जैन उल्लेख मेरे देखने मे मज्झिम निकाय (१.३७३) और अंगुत्तर निकाय नही पाये। (२.१६६) से त्रियोग अथवा त्रिदण्ड का उल्लेख है, पर ___ बौद्ध संस्कृत साहित्य मे नागार्जुन की माध्यमिक पालोचनात्मक बनाने के लिए उसकी जैन दृष्टिकोण से कारिका, प्रार्यदेव का चतु शतक, धर्मकीति का प्रमाण- प्रतिकूल व्याख्या की गई है। अगुतर निकाय (४.१८२) वार्तिक, अर्चट की हेतुविन्दुटीका, प्रज्ञाकरगुप्त का प्रमाण- मे निगण्ठनात पुत्त को क्रियावादी कहा गया है। मज्झिम वार्तिकाल कार, शान्तरक्षित का तत्त्वसग्रह मादि विशेष निकाय मे बताया है कि जनो के अनुसार कठोर तपस्या महत्व के हैं, जहा जैन सिद्धान्तों का खण्डन किया गया से कर्मों की निर्जरा की जा सकती है और मोक्ष प्राप्त है । इन प्राचार्यों ने स्याद्वादको अपना टारगेट बनाया और किया जा सकता है। पूर्वोपार्जित कर्मों के अनुसार हमे उल्टा-सीधा पूर्वपक्ष स्थापित कर उसे अस्वीकारात्मक सुख दुख मिलता है। यह दृष्टिकोण महाबोधि जातक स्थिति मे लाये। और अगुत्तर निकाय (१.१७४) मे भी देखा जा सकता बहुत सा बौद्ध साहित्य चीनी, तिब्बती प्रादि लिपियो है। अगतर निकाय मे पूरण काश्यप के नाम से वरिणत में प्रकाशित है। उमे मैं नही देख सका। नागरी, सिहल छणिक जातियों का उल्लेख है, जिनमें पड्लश्याप्रो के व रोमन लिपि में प्रकाशित साहित्य में से जो भी उपलब्ध दर्शन होते है। हो सा, उसे देखने का प्रयत्न किया है। वहा प्राप्य पालि-साहित्य मे अनेक स्थानों पर जगत् की प्रकृतिजैन उद्धरणो को विषयानुसार संक्षेप में इस तरह विभा- विषयक विचारों का पालेखन है। स्याद्वाद सिद्धान्तो के जित किया जा सकता है प्राधार पर उनमे जैन सिद्धान्त स्पष्ट नज़र पाता है१०। १. जैन दर्शन-Jaina Philosophy. शान्तरक्षित ने इस विषय में मूरि (शायद पात्रकेमरि) २. जैन प्रमाण-विचार-Jaina Epistemology. के नाम कुछ उल्लेख किये है जहाँ जगत को अणुमों का ३. जैन प्राचार-Jaina Ethics. समूह बताया गया है११। तत्त्वसग्रहमे 'पुद्गलो दिगम्बरः' ४. अनेकान्तवाद-The Theory of Non Ab ४. दीघनिकाय, १,१८६-७ sotulism. (१) जैन दर्शन ५. सुमगलविलासिनी, पृ० ११० मज्झिम निकाय १ के एक उल्लेख में जैन सिद्धान्त के ६. तत्त्वसग्रह, ३११.३७। सप्त तत्वो के उल्लेख की झलक मिलती है। ब्रह्मजाल ७. हेतुविन्दुटीका, पृ० १०४-७ सुत्तर में उल्लिखित वासठ मिथ्याष्टियो तथा उदान३ ८. मज्झिम १,६३; २.३१. २११६ : अंगुत्तर १२२० ६. अगुत्तर ३.३८३, तुलना करिये-दीघनिकाय अट्टकथा माज्झम० १,६३:२,३१, २१४ : अंगुत्तर २,३१,२१४ १.१६२ : सयुक्तः ३.२१०, दीघ. ३.२५०. २. दीघनिकाय, १,३२ १०. दीघ. १.२३, मुमगलविलामिनी १.११५ ३. उदान, पृ० ६७ ११. तत्वसंग्रह १११-२, १९८०.८३
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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