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________________ अनेकान्त पौर घटनामों का सजीव वर्णन मिलता है। परन्तु परि- काव्य मे विषय का विस्तार होता है तथा सन्धियों की स्थिति जन्य धार्मिक रूढिबद्धता और विवेकशीलता के बहुलता । और चरितकाव्य में विषय संक्षिप्त तथा मर्यामभिव्यक्तिकरण में कहीं-कही कथानक दब सा गया है। दित रहता है । सस्कृत-साहित्य में पुराणों की एक लम्बी और अधिकतर यह वृत्ति कथा के उत्सराई में लक्षित होती परम्परा दिखाई पड़ती है। पुराणों में केवल दन्तकथाएं है। वस्तुत: घटनाए जीवन के सम्पूर्ण चित्र प्रतिबिम्बित या प्रचलित लोक कथानों का ही वर्णन नहीं रहता है करने के लिए चित्रित की गई हैं और भावनामो तथा परन्तु वे भारतीय संस्कृति, समाज तथा इतिहास के पुरविचारों के अनुसार नायक के जीवन-क्रम में उनका सकोच स्कर्ता हैं जो अनुश्रुतियों के रूप मे युग-युगों से ख्यात हैं। पौर विस्तार हुआ है। अधिकतर पात्र-वर्ग विशेष का पुराणों का मुख्य स्वरूप हैं-पंच लक्षणों का समाहार । प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए वे स्थान-स्थान पर धार्मिक सष्टि की उत्पत्ति से लेकर विकास तथा विनाश तक की मान्यतामो एव लोक-विश्वासो को प्रकट करते हैं। कथा का समे वर्णन रहता है। और वशावली तण जिस प्रकार से हीरोहक पोइट्री के नायक युद्ध तथा गज्यस्थिति एवं कालक्रम का विस्तृत वर्णन किया जाता संकट काल मे अदम्य साहसिक प्रवृत्तियो तथा कार्यों का है। प्राचार्य जिनसेन रचित "पादिपुराण" इसी कोटि का परिचय देते दिखलाई पड़ते हैं उसी प्रकार अपभ्रश के काव्य है जिसमे कुलकरों का वर्णन, सष्टि रचना, समाज. कथाकाव्यो के नायक भी अदम्य साहस का परिचय देते व्यवस्था, कृ.पि, शिल्प, वाणिज्य-व्यवसाय शस्त्र-शास्त्र हुए चित्रित किये गये हैं। और इसलिए जहा उनमे शूर- प्रादि ज्ञान-विज्ञान की उत्पत्ति तथा विकास और वशवीरता है वहीं दया, क्षमा, वात्सल्य, स्नेह आदि मानवीय वशान्तरो का अत्यन्त विस्तृत वर्णन है । कथा या वस्तु की गुणों की भी प्रतिष्ठा हुई है। उनका जीवन मानव से दृष्टि से पुराण में कई कथानो की संयोजना की जाती देवता बनने का एक अद्भुत उपक्रम है जिसमे वे अन्ततः है। प्राख्यानों की विविधता तथा भरमार होने के कारण सफल होते हैं । इस प्रकार गायक का जीवन संघर्ष-विषणों ही महाभारत को महाकाव्य के भीतर महाकाब्य कहा का जीवन है जिसमे सचाई और ईमानदारी तथा उपकार जाता है। की भावना उन्हें सामान्य जीवन से ऊँचे उठाने में सहायक यद्यपि चरितकाव्य का विकास पुराणों से हमा प्रतीत सिद्ध होती हैं। होता है । क्योंकि पुराणों की भांति प्रतिलौकिक घटनाओं परितकाव्य का स्वरूप को अतिरंजना कही-कहीं इनमें भी दिखाई पड़ती है परन्तु शैली की दष्टि से अपभ्रंश-साहित्य मुख्य रूप से तीन कई बातो में ये पुराणो से भिन्न हैं। सामान्यतः निम्नप्रकार की काव्यात्मक विधामों में लिखा हुआ मिलता है- लिखित बातों में भेद हैपुराणकाव्य, कथाकाव्य और चरितकाव्य । यद्यपि अपभ्रंश (१) पुराण में कई प्रादर्श चरित्रों तथा कथाओं का कवियों ने अपनी रचनानी के मबध मे कोई स्थिर मत अदभुत सम्मिश्रण रहता है। शास्त्रीय महाकाव्य की अपेक्षा नहीं दिया है और इसीलिए वे जिस काव्य को "कहाकव्व" अतिरंजित कल्पनाओं तथा घटनामो की भरमार रहती या कथाकाव्य कहते हैं उसी को “चरिउ" या चरितकाव्य है। यथार्थ जीवन का भी अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन भी कहते हैं। और इसी प्रकार से वस्तु की दृष्टि से जो रहता है। पुराण सज्ञक काव्य हैं वे ही चरितमूलक भी। ऐसी स्थिति (२) अधिकतर पुराणों का उद्देश्य प्रत या कथा के मे किसी काव्य का स्वरूप निर्धारण करना कठिन अवश्य माध्यम से उपदेश देना है। धार्मिक उद्देश्य को ही लेकर ही हो जाता है परन्तु काव्य की शैली के अनुसार उसका प्रायः पुराण लिखे गये है जिनमे धार्मिक विश्वास, परम्परारूप बहुत कुछ अंशो में निश्चित हो जाता है। गत मान्यता तथा श्रद्धा से अनुरजित भावों की ही प्रधानता डा. भायाणी के अनुसार स्वरूप की दृष्टि से पौरा रहती है। णिक तथा चरितकाव्य में अधिक अन्तर नही है। पौराणिक १-"पउमसिरि चरिउ" की प्रासगिक भूमिका, पृ०१५।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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