SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विदर्भ के दो हिन्दी काव्य ग० विद्याधर जोहरापुरकर १. प्रास्ताविक-वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के पूर्व चरित के प्रणेता महाकवि स्वयभूदेव पौर धवला-जयभाग के माठ जिले विदर्भ के नाम से पुरातन समय से धवला टीकाग्रो के निर्माता स्वामी वीरसेन जिनसेन इसी प्रसिद्ध हैं। मध्ययुग में यह प्रदेश बराट, वैराट, वहाड़ वाटग्राम से सम्बद्ध रहे थे (जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० (या अंग्रेजी प्रभाव के कारण बरार) भी कहलाता था। २ पृ. २७) । इस प्रदेश से जैन समाज के सम्बन्ध भी पुरातन हैं। २. विवों में हिन्दी साहित्य रचना-विदर्भ के इन पौराणिक परम्परा के अनुसार भगवान ऋषभदेव मोर पुरातन सम्बन्धों में पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में एक चक्रवर्ती भरत के राज्य में यह प्रदेश समाविष्ट था। नया मोड़ भाया । इस समय राजस्थान के कई जैन (हरिवंशपुराण सं० ११ श्लो० ६६; महापुराण २६ जातियों के बहुत से परिवार अपना मूल प्रदेश छोड़कर श्लो० ४०); इस प्रदेश की राजधानी कुण्डिनपुर वरदा दक्षिण में पाए और विदर्भ, महाराष्ट्र और कर्णाटक में नदी के किनारे थी जिसकी स्थापना हरिवश के राजा बस गए । यद्यपि लौकिक व्यवहार के लिए इन लोगों ने ऐलेय के पुत्र कुणम ने की थी (हरिवंशपुराण सं० १७ स्थानीय भाषाएं मराठी और कन्नड-अपना ली तथापि श्लो० २३); इसी कुण्डिनपर में भगवान धर्मनाथ का धार्मिक और साहित्यिक कार्यों के लिए वे अपनी पुरातन विवाह सम्पन्न हुआ था (धर्मशर्माभ्युदय सर्ग १६) तथा भाषा हिन्दी का भी प्रयोग करते रहे। विदर्भ में इस प्रकार श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न का ससुगल भी यही था। (उत्तर- जो हिन्दी साहित्य लिखा गया वह यद्यपि विस्तार की पुराण पर्व ७१, हरिवंश पुराण स० ४२ तथा ४०)। दृष्टि से महत्व का नहीं है तथापि वह इस बातका प्रमाण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस प्रदेश के जैन परम्परा सम्बंधी है कि पुरातन समय में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग अहिन्दी उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। यहा के प्रसिद्ध नगर प्रचलपुर के भाषी क्षेत्रों में भी हुमा करता था। अब तक हमें इस ब्रह्मद्वीप नामक स्थान से सम्बद्ध ब्रह्मदीपिक शाखा जैन वैदर्भीय हिन्दी की जिन रचनामों का परिचय मिला है साधुमों में प्रसिद्ध थी, इसकी स्थापना सन् पूर्व दूसरी उनमें कुछ इस प्रकार है-अभयपडित की रविवत कथा शताब्दी में पार्य ववस्वामी के मामा मार्य शमित ने की (मोलहवीं शताब्दी) छत्रसेन का द्रौपदीहरण (सत्रहवीं थी (परिशिष्टपर्व सं० १२) । ई०सन् की तीसरी शताब्दी शताब्दी), हीरापडित का प्रनिरुद्धहरण (सत्रहवीं शताब्दी), के मायसिंह भी इसी शाखा के विद्वान माचार्य थे (नन्दी- गंगादास की प्रादित्यव्रतकथा (सत्रहवीं शताब्दी), वृषभ सूत्र स्थविरावली गा० ३६) । पडित हरिषेण ने अपभ्रश की रविव्रतकथा (अठारहवी शताब्दी), ज्ञानसागर की धर्मपरीक्षा ग्रंथ की रचना सन् १८८ मे प्रचलपुर मे ही अक्षरबावनी (मत्रहवीं शताब्दी) तथा पूनासाह की पुरकी थी। दसवीं शताब्दी में इस नगर में राजा एल (पर न्दरव्रतकथा। इसी परम्परा के दो विशिष्ट कवि पामो नाम श्रीपाल) का शासन रहा, जो श्रीपुर के अन्तरिक्ष और धनसागर की दो रचनाओं का परिचय हम इस लेख पाश्वनाथ मन्दिर के निर्माण के कारण विशेष प्रसिद्ध हुए मे दे रहे हैं। थे । विदर्भ के मध्यभाग में स्थित वाटग्राम पाठवीं-नौवीं ३. कवि पामो-इनकी दो ही रचनाएँ प्राप्त हुई शताब्दी मे जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा था। हैं-भरतभुजबलिचरित्र और प्रष्टद्रा पूजा छप्पय । द्विसन्धान महाकाव्य, नाममाला तथा विषापहारस्तोत्र के दूसरी रचना से कवि का केवल नाम ही मालूम होता है। रचयिता महाकवि धनंजय, पउमचरिउ और रिद्वनेमि- किन्तु भरतभुजबलिबग्त्रि में कुछ अधिक जानकारी
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy