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________________ बीकान्त शान्तरक्षित ने क्षणभगवाद की आलोचना के कुछ (स्यात्) शब्द का प्रयोग मिलता भी है। यहाँ यह उल्लेखतत्वों का उल्लेख किया है जो जैनाचार्यों के द्वारा की गई नीय हैं कि जिन प्रग विषयक मतों का ऊपर उल्लेख किया मालोचना का स्मरण दिलाते हैं । वस्तु के सामान्य- गया है वे सभी जैन सिद्धान्त के अनुयायी रह चुके थे। विशेषात्मक स्वरूप की उपस्थापना और उसकी मालचोना इसलिए उनके सिद्धान्त जैनधर्म से प्रभावित स्वभावतः भी की है। इस प्रसगमे बौद्धाचार्य परम्परागत स्वर्णपात्रका होगे ही। उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उत्तरकालीन बौद्धाचार्यों ने स्यावाद की तीव्र पालोपालि साहित्य मे नयहेतु को बुद्ध ने कथनशैलियों मे चना की है। नागार्जुन, धर्मकीति,१० प्रज्ञाकरगुप्त,११ एक माना है।३ ये ही नयवाद के बीज हैं। सम्मुनिसच्च प्रचंट१२ शान्तरक्षित और कमलशील,१३ कर्णकर पौर परमत्थसच्च जनोंके पर्यायाथिक और द्रव्याथिक नयके जितारी १५ प्राचार्य इस विषय में उल्लेखनीय है । सभी ने अनुकरण पर उपस्थित किये गये हैं।४ सूत्तनिपात (६८, प्राय' एक जैसी मालोचना की है। इस आलोचना का २१६) मिलिन्दपन्ह (पृ० १६८) मादि में भी इनके उत्तर जनाचाया ने दिया है ।१६ वास्तविक बात तो यह है उदाहरण मिलते हैं। कि बौद्धाचार्यों ने स्याद्वाद को पूर्णतः समझने का प्रयत्न ब्रह्मजाल सुत्त में प्रमराविवेपवादियों के चार नहीं किया जिससे वे स्वय "दूषकोऽपि विदूषक" हो गये। सम्प्रदायों का उल्लेख है। उनमें चौथे सम्प्रदाय का पोषक इस प्रकार हमने बौद्ध साहित्य में प्रागत कुछ जैन सञ्जयलद्विपुत्र कहा जाता है। वह निषेधात्मक ढग से विषयक उल्लेखो को देखा जिनके माधार अनेक निष्कर्ष वस्तु के विषय में चार प्रकार से उत्तर देता है । जिन्हें निकाले जा सकते है। प्रस्तुत विषय (Jainism in स्याद्वाद के प्रथम चार अगो के समकक्ष रख सकते हैं। Buddhist Literature) पर मैंने अपना प्रबन्ध विद्योदय मक्खलि गोसाल का राशिक सिद्धान्त स्याद्वाद के प्रथम विश्वविद्यालय कोलम्बो सीलोन (श्रीलका) में प्रस्तुत तीन अंगों पर 'माधारित है। बुद्ध ताकिक प्रश्नो का किया है । अक्टूबर १९६३ में मैं वहाँ कामनवेल्थ स्कालउत्तर चार प्रकार से देते थे, जिन्हें स्याद्वाद के प्रथम चार शिप पर Ph. D. करने गया था और अभी जुलाई १९६५ रूप कहे जा सकते हैं। में वापिस पाया हूँ। वहाँ रहकर जो कुछ बौद्ध साहित्य पाश्र्वनाथ सम्प्रदाय के अनुयायी सच्चक के कथन में७ के अध्ययन करने का अवसर मिला है, उससे मैं इस पौर निगण्ठ नातपुत्त तथा चित्र गृहपतिके सवाद मे स्याद्वाद निष्कर्ष पर पहुंचा हुँ कि यदि विद्वान जैन और बौद्ध के दर्शन होते हैं। मज्झिमनिकाय के दीघतर व सुत्त मे साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने की भोर कदम दीघनख परिवाज़क के मृत की आलोचना की गई है। बढायें तो निश्चित ही अनेक नये तथ्य हमारे समक्ष मा जहाँ वह तीन प्रकार से प्रश्नो का उत्तर देता था। वे सकेंगे। तीनो प्रकार भी मप्तभंगी के प्रथम तीन भगों के अनुरूप है। मज्झिम निकाय के चूल राहुलांवाद सुत्तन्त मे सिय ६. माध्यमिक कारिका ४५-४६ १०. प्रमाणवातिक १,१८३-५ १. तत्त्वसंग्रह ३५२ ११. प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० १४२ २. प्रमाणवातिक ४,६, प्रमाणवातिकालंकार, पृ० ३३३, १२. हेतुविन्दुटीका पृ०२३३ हेतुविन्दुटीका, पृ० १,६८, तत्वसग्रह ३१३-३१५ १३. तत्त्वसंग्रह १७२३-३५, पृ० ४८१ ३. प्रगुत्तर, २,१६१-६३, नयेन नेति-सयुक्त २,५० १४. प्रमाणवार्तिक स्ववृत्तिटीका पृ० १०६ ४. माध्यमिक कारिका, असत्य परीक्षा ८ १५. अनेकान्तवादनिरास ५. दीघ १,२४-२५ - ६. नन्दि टीका १.३ १६. न्यायविनिश्चय ११७,८, न्यायविनिश्चय विवरण ७. मज्झिम २.२ १०८७, न्यायकुमुदचंद्र पृ० ३६९, सिद्धि विनिश्चय ८. संयुक्त,४६८ ६,३७ मादि
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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