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________________ मध्य भारत का जन पुरातत्व इस मन्दिर की खुदाई के समय जो मतियां मिली महत्वपूर्ण है। इन सब कारणों से यह मन्दिर अपनी उनमें से एक में पंचवटी का वह दृश्य प्रकित है जहाँ सानी नही रखता । लक्ष्मण ने रावण की बहन सूर्पनखा की नाक काटी थी। देवगढ़ के जैन मन्दिरों का निर्माण, उत्तर भारत में अन्य एक पाषाण में राम और सुग्रीव के परस्पर मिलन विकमित पार्य नागर शैली मे हमा है। यह दक्षिण की का अपूर्व दृश्य अकित है। एक अन्य पत्थर में राम द्रविड शैली से अत्यन्त भिन्न है, नागर शैली का विकास लक्ष्मण का शबरी के पाश्रम में जाने का दृश्य दिखाया गुप्तकाल में हुमा है । देवगढ़ मे तो उक्त शैली का विकास गया है। इसी तरह के अन्य दृश्य भी रहे होगे। रामायण पाया ही जाता है किन्तु खजुराहो मादि के जैन मन्दिरों की कथा के यह दृश्य अन्यत्र मेरे अवलोकन मे नही पाये, में भी. इसी कला का विकास देखा जाता है। यह कला ही यही पर नारायण की मूर्ति है और एक पत्थर में गजेन्द्र पूर्णरूप से भारतीय है भोर प्राग्मुस्लिम कालीन है, इतमा मोक्ष का दृश्य भी उत्कीणित है। दक्षिण की पोर दीवार ही नहीं किन्तु समस्त मध्यप्रान्त की कला इसी नागर मे शेषशायी विष्णु की मूर्ति है, जो बड़े प्राकार के लालन शैली से प्रोत-प्रोत है । इस कला को गुप्त, गुर्जर, प्रति. पत्थर में खोदी गई है। इससे यह मन्दिर भी अपना हार और चन्देलवशी राजामों के राज्यकाल में पल्लवित विशेष महत्व रखता है। पौर विकसित होने का अवसर मिला है। जैन मन्दिर और मूर्तिकला देवगढ़ की मूर्तियों में दो प्रकार की कला देखी जाती देवगढ में इस समय ३१ जैन मन्दिर हैं जिनकी है, प्रथम प्रकार की कला में कलाकृतियां अपने परिकरों स्थापत्यकला मध्य भारत की अपूर्व देन है। इसमे से न० से अकित देखी जाती हैं । जैसे चमरधारी यक्ष-यक्षणियां, ४ के मन्दिर मे तीर्थकर की माता सोती हई स्वप्नावस्था सम्पूर्ण प्रस्तराकार कृति में नीचे तीर्थकर का विस्तृत में विचारमग्न-मुद्रायुक्त दिखलाई गई है। नं.५ का मन्दिर प्रासन और दोनो पाश्वों में यक्षादि अभिषेक-कलश लिए सहस्रकूट चैत्यालय है जिसकी कलापूर्ण मूर्तियाँ अपूर्व दृश्य हुए दिखलाये गये है, किन्तु दूसरे प्रकार की कला मुख्य दिखलाती हैं । इस मन्दिर के चारो ओर १.०५ प्रतिमाएँ मूर्ति पर ही प्रकित है, उसमे अन्य अलंकरण पोर कलाखुदी है। बाहर सं० ११२० का लेख भी उत्कीणित है। कृतियाँ गौण हो गई हैं। मालूम होता है इस युग में जो सम्भवतः इस मन्दिर के निर्माण काल का ही द्योतक साम्प्रदायिक विद्वेष नही था। और न धर्मान्धता ही थी, है। न० ११ के मन्दिर मे दो शिलानों पर चौबीस इसी से इस युग में भारतीय कला का विकास जैनों, तीर्थकरों की बारह-बारह प्रतिमाएँ अकित है। ये सभी बैष्णवों और शंवों मे निविरोध हुमा है। प्रस्तुत देवगढ़ मूर्तियां प्रशान्त मुद्रा को लिए हुए हैं। जैन और हिन्दू संस्कृति का सन्धिस्थल रहा है। तीर्थकर इन सब मन्दिरों में सबसे विशाल मन्दिर नं०१२ मूतिया, सरस्वती की मूर्ति, पंचपरमेष्ठी की मतियां. शामिना महिना पमित जिरे कलापूर्ण मानस्तम्भ, अनेक शिलालेख और पौराणिक चारों ओर अनेक कलाकृतियाँ और चित्र अंकित हैं। दृश्य प्रकित हैं, साथ ही वराह का मन्दिर, गुफा में शिवइनमे शान्तिनाथ भगवान की १२ फुट उत्तुग प्रतिमा लिंग, सूर्य भगवान् की मुद्रा, गणेशमूर्ति, भारत के लग विराजमान है, जो दर्शक को अपनी ओर माकृष्ट करती पौराणिक दृश्य, गजेन्द्रमोक्ष प्रादि कलात्मक सामग्री है पौर चारों कोनो पर अम्बिकादेवी की चार मूतियां है, देवगढ़ की महत्ता की द्योतक है। जो मूर्तिकला के गुणों से समन्वित हैं। इस मन्दिर की भारतीय पुरातत्व विभाग को देवगढ़ से २०० शिलाबाहरी दीवार पर जो २४ यक्ष यक्षिणियों की सुन्दर कला लेख मिले हैं, जो जैन मन्दिरों, मूतियों और गुफामों कृतियाँ बनी हुई है। जिनकी प्राकृतियों से भव्यता टपकती मादि में अंकित हैं। इनमें साठ शिलालेख ऐसे है जिनमे है । साथ ही १८ लिपियों वाला लेख भी बरामदे मे समय का उल्लेख दिया हुआ है। ये शिलालेख स०६०६ उत्कीर्णित है, जो भाषा साहित्य के विकास की दृष्टि से से १८७६ तक के उपलब्ध हैं। इनमे सं० ६०६ सन्
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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