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________________ २०० अनेकान्त षण किया जाय जो वृक्षों की छाया में स्थित हो प्रयवा की प्रतिमा श्रेष्ठ होती है, दो अंगुन की प्रतिमा से धनदूब से ढकी हुई हो, ताकि वह सदा ही सूर्य की किरणों नाश, तीन अगुल को प्रतिमा से सिद्धि और चार अंगुल से तपती न रही हो। जलाशय में डूबी हुई शिला इस की प्रतिमा से पीड़ा होती है। पांच अंगुल की प्रतिमा कार्य के लिये उत्तम मानी गई है, किन्तु खारे पानी में वृद्धिकारक है जब कि छह अंगुल की प्रतिमा से उद्वेग प्रथवा उसके निकट स्थित शिला प्रतिमा कार्य के लिये होता है। सात अंगल की प्रतिमा से गोधन की वृद्धि अनुपयुक्त होती है। होती है और पाठ अंगुल की प्रतिमा से उसकी हानि होती गृह पूज्य प्रतिमा है । नौ अंगुल की प्रतिमा से पुत्रवृद्धि और दश अगुल __मत्स्यपुराण में अंगूठे की ओर से लेकर एक वितस्ति को प्रतिमा से धन का नाश होता है। ग्यारह अगुल की अर्थात् बारह मंगुल तक ऊंची प्रतिमा को घर मे रखने प्रतिमा सभी इच्छामों को पूरा करती है । योग्य बताया गया है और उससे अधिक ऊची प्रतिमा को ठक्कर फेक ने सिद्धों की केवल उन्हीं प्रतिमानों को घर में पूजना प्रशस्त नहीं कहा है१ । यही मत रूपमंडन- घर में पूजने योग्य कहा है जो धातुनिर्मित हों। कुछ कार का भी है। किन्तु जैन ग्रंथकारों में गृहपूज्य प्रतिमा ग्रंथकारों ने बालब्रह्मचारी तीर्थकरों की प्रतिमानों को भी की अधिकतम ऊंचाई के बारे में किंचित् मतभेद दिखाई गृहपूज्य नहीं कहा है, क्योंकि उनके हर समय दर्शन करते देता है। दिगम्बर प्राचार्य बसुनन्दी द्वादश अंगुल तक रहनेसे परिवारके प्रत्येक व्यक्तिको वैराग्य हो सकता है। ऊँची प्रतिमा को घर में पूज्य बताते हैं३ । किन्तु ठक्कर इसके अतिरिक्त मलिन, खण्डित और अधिक या हीन फेरु ने केवल ग्यारह अंगुल तक ऊंची प्रतिमा को ही गृह- प्रमाणवाली प्रतिमाएं भी घर में नहीं पूजी जानी वाहिये। पूज्य बताया है। इसका मुख्य कारण यह है कि ठक्कर रूपमंडन (१NE-L) में बताया गया है कि मंदिर मे फेरु सम अंगुल प्रमाण की प्रतिमानों के निर्माण को अशुभ तेरह अंगुल से लेकर नौ हाथ ऊंची प्रतिमा की पूजा को मानते हैं५ । वर्धमान सूरि ने भी विषम अंगुल प्रमाण की जानी चाहिये और उससे अधिक ऊंची प्रतिमामों की पूजा ही प्रतिमाएं निर्मित करने का विधान किया है भार सम प्रासाद के बिना ही की जा सकती है। मत्स्यपुराण बंगुर प्रमाण की प्रतिमा का निषेध किया है। उन्होंने (२५७:२३) में सोलह हाथ तक की प्रतिमानों को प्रासाद एक से लेकर ग्यारह अंगुल तक की प्रतिमानों के निर्माण में पूजने योग्य बताया है। माचार दिनकर (३३) उदय का फल भी बताया है। वह इस प्रकार है-एक अंगुन १. मत्स्यपुराण, २५७।२२ ७. प्रथातः सम्प्रवक्ष्यामि गृहविम्बस्य लक्षणम् । २. रूपमंडन, १७ एकागुले भवेच्छष्ठं यङगुलं धननाशम् ॥ ३. द्वादशांगुलपर्यन्तं जात्वष्टांशादितः क्रमात् । जयगुले जायते सिद्धिः पीडा स्याच्चतुरङ्गुले । स्वगृहे पूजयेद्विम्बं न कदाक्त्तितोऽधिकम् ।। पंचागुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षड्गुले । प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५१७७ सपाङ्गुले गवां वृद्धि निरष्टाङ्गुले मता ।। ४. इक्कंगुलाइ पणिमा इक्कारस जाव गेहि पूइज्ज । नवागुले पुत्रद्धिर्धननाशो दशांगुले । उड़े पासाइ पुणो इन भणियं पुबसूरीहिं ॥ एकादशाङ्गुले विम्ब सर्वकामार्थसाधनम् ॥ वास्तुसारप्रकरण, २०४३ प्राचार दिनकर उदय ५. समभंगुलप्पमाणं न सुन्दरं हवह कइयापि ॥ ८. पाहाणलेवकट्टा दंतमया चित्तलिहिय जा पडिमा। अप्परिगरमाणाहिय न सुन्दरा पूयमाण गिहे। ६. विषमैरङ्गुलहस्तः कार्य बिम्ब न तत्समै. । वास्तुसार प्रकरण, २१४२ द्वादशाङ्गुलतो हीनं बिम्बं चैत्येन धारयेत् ॥ ६. सकलचन्द्र उपाध्याय कृत प्रतिष्टाकल्प । माचारदिनकर, उदय ३३ गुजराती अनुवाद पन्ना व २३ i on.ma.mmm .
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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