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________________ मध्य भारत का जैन पुरातत्त्व पुरातात्विक सामग्री का अस्तित्व जरूर रहा है; परन्तु जो प्रवशिष्ट बच पाई है उसका संरक्षण भी दूभर हो गया वर्तमान में वह विरल ही है। है। और बाद में उन स्थानों में वैसा मजबूत संगठन नहीं मध्यप्रदेश के पुरातात्विक स्थान और उनका बन सका है, जिससे जैन संस्कृति और उसकी महत्वपूर्ण संक्षिप्त परिचय सामग्री का संकलन और संरक्षण किया जा सकता। मध्यप्रदेश के खजुराहा, महोवा, देवगढ़, प्रहार, सबुराहो-यह रन्देल कालीन उत्कृष्ट शिल्पकला मदनपुर, बाणपुर, जतारा, रायपुर, सतना, नवागढ़, का प्रतीक है। यहां खजूर का वृक्ष होने के कारण 'खजूर मिलमा, भोजपुर, मऊ, धारा, बडवानी, ऊन और उज्जैन पुर' नाम पाया जाता है । खजुराहो जाने के दो मार्ग हैं। प्रादि पुरातत्त्व की सामग्री के केन्द्र स्थान हैं। इन स्थानों एक मार्ग झांसी-मानिकपुर रेलवे लाइन पर हरपालपुर या की कलात्मक वस्तुएं चन्देल और कलचूरी कला का या महोबा से छतरपुर जाना पड़ता है। और दूसरा मार्ग निदर्शन करा रही हैं। यद्यपि मध्यप्रदेश मे जैन शास्त्र झांसी से बीना सागर होते हुए मोटर द्वारा छतरपुर जाया भडारो के सकलन की विरलता रही है, ५-७ स्थान ही जाता है और छतरपुर से सतना जाने वाली सड़क पर से ऐसे मिलते हैं जहां प्रच्छे शास्त्र भंडार पाये जाते हैं। बीस मील दूर वमीठा मे एक पुलिस थाना है, वहां से यद्यपि प्रत्येक मन्दिर मे थोड़े बहुत ग्रन्थ अवश्य पाये राजनगर को जो दस मील मार्ग जाता है, उसके वें मील जाते हैं पर अच्छा संकलन नहीं मिलता। इसका कारण पर खजुराहो अवस्थित है। मोटर हरपाल पुर से तीस यह है कि वहां भट्टारकीय परम्परा का प्रभाव अधिक नहीं मील छतरपुर भोर वहां से खजुराहो होती हुई राजनगर हो पाया है। जहा-जहां भट्टारकीय गद्दियां और उनके जाती है। विहार की सुविधा रही है वहा वहां अच्छा संग्रह पाया यहां भारत की उत्कृष्ट सांस्कृतिक स्थापत्व और वास्तुजाता है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का संकलन राज- कला के क्षेत्र में चन्देल समय की देदीप्यमान कला अपना स्थान, गुजरात, दक्षिण भारत तथा पंजाब के कुछ स्थानों स्थिर प्रभाव अंकित किये हुए है। चन्देल राजामो की मे पाया जाता है। वैसा मध्यप्रदेश में नहीं मिलता। हां भारत को यह असाधारण देन है। इन राजामों के समय उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों मे-मागरा, मैनपुरी मेरठ, में हिन्दु-संस्कृति को भी फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर सहारनपुर, खतौली, मुजफ्फरनगर और तिस्सा प्रादि मे- मिला है। उस काल मे सास्कृतिक कला और साहित्य के ग्रंथ संग्रह पाया जाता है। और दिल्ली के तो जैन शास्त्र विकास को प्रश्रय मिला जान पड़ता है, यही कारण है कि भंडार प्रसिद्ध ही हैं। मध्य प्रदेश के जिन कतिपय स्थानो उस काल के कला-प्रतीकों का यदि सकलन किया जाय, का उल्लेख किया गया है उनमें से कुछ स्थानो का यहा जो यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। उससे न केवल प्राचीन कला सक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का विषय है यद्यपि की रक्षा होगी बल्कि उस काल का कला के महत्व पर मालव प्रान्त भी किसी समय जैनधर्म का केन्द्र स्थल रहा भी प्रकाश पड़ेगा और प्राचीन कला के प्रति जनता का है, और वहां अनेक साधु-सन्तों पौर विद्वानों का जमघट अभिनव प्राकर्षण भी होगा; क्योकि कला कलाकार के रहा है। खास कर विक्रम की १०वी शताब्दी से १३वी जीवन का सजीव चित्रण है। उसकी प्रात्म-साधना कठोर शताब्दी तक वहां दि० जैन साधुनों मादि का प्रध्ययन, छनी और तत् स्वरूप के निखारने का दायित्व ही अध्यापन तथा विहार होता रहा है, और वहां अनेक ग्रंथों उसकी कर्तव्यनिष्ठा एवं एकाग्रता का प्रतीक है। भावों की की रचना की गई है। साथ ही, अनेक प्राचीन उत्तुग अभिव्यंजना ही कलाकार के जीवन का मौलिक रूप है। मन्दिर और मूर्तियों का निर्माण भी हुमा है। परन्तु राज्य उससे ही जीवन में स्फूति और पाकर्षण शक्ति की जागृति विप्लवादि और साम्प्रदायिक व्यामोह मादि से उनका होती है। उच्चतम कला के विकास से तत्कालीन इतिहास संरक्षण नहीं हो सका है। अतः कितनी ही महत्व की के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। बुन्देलखण्ड में ऐतिहासिक पोर सांस्कृतिक सामग्री विलुप्त हो गई है। चन्देल और कलचुरिमादि राजापो के शासनकाल में
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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