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________________ १५ अनेकान्त स्वयं की शब्दावली का प्रयोग किया है जैसे हस्व के लक्ष्मीधर ने (१४७५-१५२५ ई०) ६६४ सूत्रों की टीका लिए ''दी के लिए 'दी' समास के 'स' गण पर के को। पर अप्पय दीक्षित ने १५५३-१६२६ ई.के) लिए 'ग' विकल्प के लिए 'तु' इत्यादि । त्रिविक्रम के लगभग सभी सूत्रों की टीका की है। बाल सरस्वती "प्राकृत शब्दानुशासन मे १, १०३६ सूत्र हैं और वे तीन (१७वी-१८वी सदी ई.) की टीका अब तक छपी नही प्रध्यायों में विभाजित है और प्रत्येक अध्याय चार है। यद्यपि यह सुनिश्चित सत्य है कि समुद्रबधायेज्वन के पादों में विभाजित है। त्रिविक्रम ने "शेषम् सस्कृतवत्" सुपुत्र सिंहराज ने त्रिविक्रम से बहत-सी सामग्री संकलित (३.४.७१) के अन्र्तगत विषय को द्वादशपदी कहा है। की है, पर नियमों के अतिरिक्त उनमे कोई समानता नहीं प्राकृत साहित्य के क्षेत्र में त्रिविक्रम की सबसे बड़ी देन पाई जाती है । सभी व्यावहारिक उद्देश्यो के हेतु सिंहराज उनके देशी शब्द हैं जिन्हें उन्होंने छः वर्गों में विभाजित ने अपनी प्राकृत व्याकरण निम्न भागों में विभाजित की किया है। (8)-वापु प्राय्याद्यः (१,२,१०६)२ है।। १-संज्ञा विभाग, २-परिभाषा विभाग, ३-सहिता गौणद्याः (१,३,१०५)३ गहिमाद्याः (१,४,१२१) ४- विभाग, ४-सुबन्त विभाग, ५-तिम्त विभाग, ६-शोर. बरह शास्तृन्मद्यः (२,१,३०) ५-अप्फुण्णगाक्तेन सेन्यादि विभाग । उपर्युक्त वर्गीकरण से हमें ऐसा प्रतीत (३-१-१३२) ६-झाङ्गास्तुदेश्याः सिद्धाः (३,४,७२) होता है कि सिंहराज के दिमाग में पागिनी की प्रष्टापादि, जबकि प्रा. हेमचन्द्र ने केवल एक ही सूत्र ध्यायी पर निर्मित कौमुदी के वर्गीकरण की व्यवस्था रही "गौणाद्याः" (८,२,१७४) और देशी नाममाला ही होगी। सिंहराज की टीका प्राकृत के विद्यार्थियो को लिखी है। त्रिविक्रम के कुछ ही शब्द ऐसे हैं जो हेमचन्द्र बहत ही लाभदायक और उपयोगी है। डा. पिशेल का से मिलते जलते हैं पर उन्होंने हेमचन्द्र के बाद कुछ मत है कि सिंहराज कृत 'प्राकत रूपावतार' कोई महत्वसमकालीन साधनों से बहुत से नवीन शब्दों का संग्रह, का का साह हीन कृति नही है, क्योंकि विभक्ति रूप और धातुरूप का किया है। ज्ञान उन्हे हेमचन्द्र और त्रिविक्रम की अपेक्षा अधिक था त्रिविक्रम की व्याकरण में जो सूत्र है उन पर सिंह इसीलिए सिंहराज ने कुछ और अधिक विधियों का राज, लक्ष्मीधर, अप्पय दीक्षित, बाल सरस्वती तथा सहजता से प्रयोग किया है । निस्सन्देह उनकी ये बहुत-सी अन्य विद्वानो ने टीका रची है। उनमें से सिंहराज विधियाँ सिद्धान्तत. तर्कणीय हैं परन्तु उनका निर्माण (१३००-१४०० ई.)४ ने केवल ५७५ सूत्रों की और निश्चय ही नियमानुसार हुआ है अतः उन्हें महत्वहीन या १. त्रिविक्रम का सूत्र पाठ (छन्दबड) भट्टनाथ स्वामी तुच्छ नहीं कहा जा सकता है । ने प्रकाशित किया। पृ० १-२८ तिथि कोई नहीं है। इसी तरह लक्ष्मीवर७ की 'सद्भाषा चन्द्रिका' नामक सम्पादक जगन्नाथ शास्त्री चौखम्भा संस्कृत सीरीज प्राकृत व्याकरण त्रिविक्रम के सूत्रों की टीका है। उन्होंने बनारस संवत् २००७ सम्पादक पी. एल. वैद्य जैन संस्कृति संरक्षक संघ ५. प्राकृत रूपातार सिहराज कृत संपादक E. Hultzsch शोलापुर १९५४ (अन्तिम पालोचनात्सक प्रावृत्ति) रायल एशियाटिक सोसाइटी प्राइज पब्लिकेशन फड २. पी. एल. वैद्य के सम्पादन के अनुसार इन सत्रों की Vol 1 लदन १९०६ संख्या १०३६ है लेकिन डा० उपाध्ये ने अपने लेख 6. Translated by Hultzsch Ibid I PI From शुभचन्द्र और उनकी प्राकृत व्याकरण (Abori Pischel's Gram. Pkt. Spr. 39. This is XIII) मे केवल १०८५ सूत्रो का उल्लेख किया है। nothing but a short summery of what he ३. Pischel gram Pkt. Spr. 41 says in his De. Gram Pkt. PP. 39-43. ४. ये तिथियां लगभग अनुमानित हैं । देखो श्री पी. एल. ७. सम्पादक श्री के. पी. त्रिवेदी B.S.PS. No LXXL वैद्य कृत 'त्रिविक्रमकी व्याकरण की भूमिका' पृष्ठ २४ बम्बई १९१६
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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