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________________ सूरदास और हिन्दी का जन पद-काव्य : एक तुलनात्मक विश्लेषण २११ खिल उठा है। जैन कवियों के उपालम्भों में भी वैसी ही उनमें विविध राग-रागिनियों की सगीतात्मक लय है । जैन दम है। "तुम प्रभु कहियत दीनदयालु । मापन जाय पद काव्य के अध्ययन से सिद्ध है कि उसमें अनेक नवीन मुकति मे बैठं हम जु रुलत इह जग-जाल ।।" द्यानतराय राग-रागिनियाँ हैं। गेय काव्य सदैव लोक से सम्बन्धित का पद है। सूर के स्वर से मिलता जुलता । ऐसे अनेकान रहा है। वह लोक काव्य ही है। प्राकृत और अपभ्रंश नेक हैं। किन्तु जहाँ सूर के पदो मे अन्य देवो के प्रति काव्य लोक के सन्निकट रहा है। इसमे जैन साहित्य की तीक्ष्णता है, वहाँ भी जैन काव्य धीर-गम्भीर बने रहे है। अधिकाधिक रचना हुई। इसके अतिरिक्त रासक और उनके उपालम्भ मर्यादा के धागे से थोडा भी बिखर नही लोक नाट्य भी जैन मदिरो मे गाये और खेले जाते थे। सके। उनके निर्माता जैन कवि थे। वहां जैन हिन्दी पद काव्य की पूर्व भूमिका प्राप्त हो जाती है। क्या सूरदास के पदयद्यपि भक्त की प्रवृत्तिया और उसके दायरे सार्व काव्य को भी वहाँ से प्रेरणा मिली?-खोज का विषय है। भौम होते हैं, वहाँ सम्प्रदाय और धर्म सम्बन्धी वैभिन्य मिट जाता है, फिर भी कुछ-कुछ अपनी विशेषता बनी ही जहाँ तक काव्य सौन्दर्य के बाह्य पक्ष का सम्बन्ध रहती है। सूरदास और जैन कवियो के काव्य मे अद्भुत है. सूरसागर और जैन पद-काव्य दोनो की भाषा में साम्य है, फिर भी उनकी प्रेरणामो के मूल स्वर भिन्न है। स्वाभाविकता, प्रसाद और लालित्य है। दोनो मे मलकारों जैसे सूर की भक्ति केवल सगुण ब्रह्म' की भक्ति है। की खीचतान नही है। उनकी गति सहज है। जहाँतक उन्होंने 'निर्गुण ब्रह्म' का जबर्दस्त खण्डन किया है। जन रूपको का सम्बन्ध है, वह केवल सूर और जैन कवियो भक्ति में सगुण और निर्गण जैसी दो धाराय नही है। का नहीं, अपितु समूचे मध्यकालीन भक्ति-काव्य की प्रवृत्ति वहाँ जो तीर्थकर माज 'सगुण ब्रह्म' है, वह अधातिया रही है। किन्तु अध्यात्म के पैराक होने के कारण जैन कर्मों का नाश कर निर्गुण बन जाता है। इसी कारण जैन कवियों को यह परम्परा बहुत दूर से प्राप्त हुई और उसमे भक्ति और अध्यात्म मे पृथकत्व नहीं है । दोनो का सम- उनका सानी नहीं। उनमे कहीं पुनरावृत्ति नही, उबा न्वय ही जैन भक्ति का मूलाधार है। इसी भाँति सूरदास देने वाली बात नहीं। जैन कवियों के रचित अनेक पूरे और जैन कवियों ने अपने-अपने प्राराध्यदेव से याचनायें रूपक काव्य मिलते हैं। प्रकृति निरूपण मे दोनों समान की और दोनों की पूर्ण भी हुई । किन्तु जहाँ सूर के थे। भगवान ने स्वयं पाकर पूरा किया, वहाँ जैन ब्रह्म अपनी जैन पद-काव्य चित्रो का काव्य है। उसका एक-एक वीतरागी विवशता से न पा सका। उसक ध्यान, स्मरण, पद एक चित्र है। सूरदास मे भी चित्रमयता है, किन्तु नाम-जप आदि से जैन भक्त की जो पुण्य-प्रकृतिया बनती दोनो मे अन्तर है। पौराणिक नामो-प्रजामिल, गणिका हैं, उन्ही से वह इहलौकिक और परम्परया पारलौकिक आदि की पुनरावृत्ति से जहाँ सूरदास के चित्र कही-कही लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। इसी से आचार्य समन्तभद्र ने धूमिल है, वहाँ जैन-चित्र दोषमुक्त हैं। वे अछूते तो नहीं लिखा, "न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ हैं, किन्तु पुनः-पुनः की आवृत्ति स नितात बचे है। इसी बिवान्तवरे, तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनाति चित्तं कारण उनमें ऊब नहीं है। उन्होंने सौन्दर्य के प्रति क्षण दुरिताञ्जनेभ्यः ।।" नवत्व को सहेजा है। सूर थोड़ा पीछे रह गये। एक ही चित्र यदि पुनः पुनः प्राये तो उसकी चित्रमयता ही चक सरदास मौर जैन कवियों के पद गेय काव्य है। जायेगी। सर मे ऐसा ही हुमा।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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