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________________ अनेकान्त जीव दो प्रकार के होते हैं-(१) बद्ध (२) मुक्त। अनन्त हैं। जीव मोर पुदाल में विजातीय परिवर्तन बर-जीव अपने देह के परिमाण में व्याप्त रहता है। होते हैं-वे एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में मुक्त-जीव जिस देह को छोड़कर मुक्त होता है, उसके चले जाते हैं, इसलिए वे सादि-सान्त भी है। यह जीव एक तिहाई १२३ प्राकाश में व्याप्त रहता है। और पुद्गल का विजातीय परिवर्तन ही सृष्टि है वह पुद्गल दो प्रकार के होते हैं-१. परमाणु व २. सादि-सान्त हैं। स्कन्ध-परमाणु समुदाय । परमाणु पाकाश के एक साधना-पथ प्रदेश (अविभाज्य-अवयव) में व्याप्त रहता है। ___ काल, पुरुषार्थ आदि समवायों का परिपाक होने पर स्कन्ध अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे जीव में प्रात्मस्वरूप को उपलब्ध करने की जिज्ञासा दि-प्रदेशी-दो परमाणुषों का स्कन्ध । उत्पन्न होती है। उसकी पूर्ति के लिए वह प्रयत्न करता त्रि-प्रदेशी-तीन परमाणनों का स्कन्ध । है और क्रमशः विजातीय परिवर्तन के हेतुओं (पुण्य, पाप इस प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी और पाश्रव) का निरोध (संवर) व क्षय (निर्जरा) कर स्कन्ध होते हैं । ये स्कन्ध प्राकाश के एक प्रदेश से लेकर मुक्त हो जाता है-पात्मस्थ हो जाता है। मोक्ष के असंख्यात प्रदेशो तक व्याप्त होते हैं । अनन्त प्रदेशी स्कन्ध साधन तीन हैंअसंख्य प्रदेशों में व्याप्त हो जाता है। १. सम्यक्-दर्शन। जितने प्रदेशों का स्कन्ध होता है वह उतने ही २. सम्यग-ज्ञान । माकाश प्रदेशो में व्याप्त हो जाता है और सूक्ष्म परिणति ३. सम्यग चारित्र । होने पर वह एक प्राकाश-प्रदेश में भी व्याप्त हो जाता कोग ज्ञान श्रेयस् की एकांगी पागवना है। कोरा शील भी वैसा ही है। ज्ञान और शील दोनो नही, वह काल मव्यापक और व्यापक दोनो है। उसके दो। श्रेयस् की विराधना है, पाराधना है ही नही । ज्ञान मौर प्रकार हैं-१ व्यावहारिक-सूर्य चन्द्र, आदि की क्रिया शील दोनों की संगति ही श्रेयेस की सर्वाङ्गीण भाराधना से नापा जाने वाला । २. नैश्चयिक-परिवर्तन का हेतु । व्यावहारिक काल सिर्फ मनुष्य-लोक में होता है। प्रमाण-नयवाद नैश्चयिककाल लोक और प्रलोक दोनों में होता है। विश्व और सष्टि की प्रक्रिया जानने के लिए जैन ५. धर्म, अधर्म, प्राकाश, पुद्गल और जीव में प्रदेशों प्राचार्यों ने भनेकात दृष्टि की स्थापना की। उनका (अवयवों) का विस्तार है, इसलिए वे मस्तिकाय हैं, अभिमत था कि द्रव्य अनन्त-धर्मात्मक है। उसे एकान्त श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार काल के अवयव नहीं है, दृष्टि से नही जाना जा सकता। उसे जानने के लिए वह प्रौपचारिक या द्रव्य का पर्याय मात्र है। इसलिए वह अनन्त दृष्टियाँ चाहिए। उन सब दृष्टियो के सकल रूप अस्तिकाय नहीं हैं-विस्तार वाला नहीं है। को प्रमाण और विकल रूप को नय कहा जाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार काल अणुरूप है, इस प्रमाण दो हैंलिए वह विस्तार शून्य है। १. प्रत्यक्ष-प्रात्मा को द्रव्य का किसी माध्यम के ६. धर्म, अधर्म और आकाश गतिशून्य हैं, जीव और बिना सीधा ज्ञान होना। पुद्गल गतिमान् । २. परोक्ष-मात्मा को द्रव्य का इन्द्रिय आदि के ७. धर्म, अधर्म और माकाश मे केवल सजातीय माध्यम से ज्ञान होना। परिवर्तन होता है। जीव और पुद्गल में सजातीय और नय सात हैंविजातीय दोनों परिवर्तन होते हैं। १. नैगम-सकल्प या कल्पना की अपेक्षा होनेवाला विश्व मनादि अनन्त है। फलतः सब द्रव्य प्रनादि- विचार ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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