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हिन्दी जन कवि और काम्य
माव कछु न हाय रे लाल ॥१॥
हमें भी अपना बाह्य रूप दिखाई देता है, वह हमारा मजयराज पाटणी
अपना नहीं, जो हमारा नाम है वह हमारा नही, जो हम चेतन चित सो परिचय बिना, जप तप सर्व निरत्य।
दिखाई देते हैं वह हम नहीं। यह चेतन उसको सही कन बिन तुस जिमि फटक ते भाव कछु न हत्त्व।।
मानता है, यही उसकी भूल है३। पारसदास का कथन
-पाण्डे रूपचन्द हैपारसदास की 'बारहखडी' में कोई पद्य ऐसा नही है। "पित मात सुता सत जी भगुर बिजुरीबत जी। उनमे नवीनता तो है ही अजयराज की अपेक्षा लालित्य जामिज करि मान्यो, सो मौत न अपनो जी ।। भी अधिक है । अध्यात्मवादी दोनों थे। किन्तु पारसदास रामा और कामा जी, बन गृह मभिरामा जी। अधिक खरे प्रतीत होते हैं । बारहखड़ी के दो पद्य हैं१
परक्अपनाय वृक्षा, यूंही भागियो जी॥ गगा गरम्योर गरम्यो त फिर,
तन प्रसुचि पावन जी, प्रध-पंजरावन जी। या विषया माय नाय नांय लषं रे,
यामै पुरष राचन, ज्ञानी न रमं जो॥" भातमरूप ज्ञानी, जीव येथिर ना छ रे,
यह पात्मा ही परमात्मा है। परमात्मा भात्मा से भारी लार नाना दुष मैं साथ सहाय करगो रे,
भिन्न नहीं है। दोनों एक हैं। माया मे फंसने के कारण अध्यात्म भूप ज्ञानी।।
यह जीव अपनी पृथक् सत्ता मानता है। यही पावागमन उठा ठाकुर रेत तिहूँ लोक को
का कारण है। इसी को द्वैत भाव कहते हैं। जब तक भल्यौ निज रूप परवसि होय करे
अढतबाद न जन्मेगा भात्मा में परमात्मभाव न जाग बड्यो भवकूप ज्ञानी जीव दे बोध्याडोरं ।
सकेगा । ससार के दुखों को सुख मान कर यह जीव यहा घेतरपाल जो पूज्या बहु रूप नाहि लष्यो छरे।
ही भ्रमता रहेगा। कबीर ने कहा-"प्रक भरे भरि मातमभूप ज्ञानी जीव ।।
भटिया, मन मे नाहीं धीर। कहै कबीर ते क्यू मिल, 'कबीर ग्रन्थावली' में 'मन को चेतावणी' एक अग
जब लगि दोइ सरीर ॥"४ यहा 'जब लगि दोइ सरीर' है। उसमे मन को चेतावनी दी गई है कि तू मसार के
का अर्थ त भाव ही है। जब प्रात्मा में-से दूत भाव सुख-भोगो मे क्यो राच रहा है। ये भोग झठे है. लालच
निकल जाता है, तब वह परमात्म-मुख का अनुभव कर मात्र है। जैन कवि द्यानतराय ने भी कबीर की भांति ही
उठता है। फिर वह स्वय पाशिक हो जाता है और स्वय लिखा, "युवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुग्ग रथ
माशूक, खुद गुरु हो जाता है और खुद शिष्य और खुद चाव रे । यह ससार मुपन को माया, प्राख मीचि दिग्व
ही ध्येय होता है और खुद ही ध्याता । पारमदास ने इम राव रे ॥"२ अर्थात् वे भी ससार की चकाचौध को।
अद्वत को अंकित किया है५'सुपन की माया' मानते है । पारसदास की एक रचना है
"मैं ही प्रासिक और मैं भूपा, मैं गुरु ज्ञान सिम्बावेगा। 'चेतनमीप' । उसमे लिखा है कि यह चेनन जिन्हे अपना
मैं ही सिष्य सीब मैं ही, फुनि नय प्रमाण न कहावेगा ।। मान रहा है वे "विजुरीवत्' भगुर है । इसके अतिरिक्त वे
मैं ही ध्याता ध्यान ध्येय मै ही, धर्मी धर्मन कहावेगा। अपने नही पर है। उनमे रमने से अपना हित नहीं होगा।
यों प्रदतभाव भय बाब, पारस तब सुख पावंगा ।।" अपना हित तो यह मानने मे है कि मसार का जो रूप
यह जीव माया के लिए अपना जीवन बिता देता है। दिखाई देता है, वह एक झलक-भर है, वास्तविकता नहीं।
३. चेतनसीप, पारस विलास, वही प्रति, पद ७-८, १. बारहखडी-३, १२ पद्य, पारस विलास, पृ० ११, प्रति वही।
४. परचा को अंग, २५वी मावी, कबीर ग्रन्थावली, डा. २. द्यानत पद संग्रह, कलकत्ता, 'अहंत सुमर मन बावरे' श्यामसुन्दरदास-सम्पादित, का. ना प्र. सभा, काशी। पद की तीसरी-चौथी पत्तियां ।
५ पद पहला, पारसविलारा, प्रति वही, पृ०७३।