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मोम् महम्
अनकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६३, वि० स० २०२३
सन् १९६६
ऋषभ-स्तोत्रम्
कम्मकलंकचउक्केरण? रिणम्मलसमाहिमूईए । तह पारण-वप्परणे च्चिय लोयालोयं पडिप्फलियं ॥१६॥ प्रावरणाईरिणतए समूलमुम्भूलियाइ दळूणं । कम्मचउक्केण मुयं व वाह भीएण सेसेण ॥२॥ पाणामणिरिणम्माणे देव ठियो सहसि समवसरणम्मि । उरि व संरिणविट्ठो जियारण जोईण सव्वाणं ॥२१॥
-मुनि पमनन्दि अर्थ-हे भगवन् ! निर्मल ध्यानरूम सम्पदा से चार घातिया कर्मरूप कलक के नष्ट हो जाने पर प्रगट हुए आपके ज्ञान (केवल ज्ञान) रूप दर्पण मे ही लोक और प्रलोक प्रतिबिम्बित होने लगे थे ॥१६. हे नाथ ! उस समय ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट हुए देख कर शेष (वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र) चार प्रघातिया कर्म भय से ही मानो मरे हुए के समान (मनुभाग से क्षीण) हो गए थे ॥२०॥ हे देव ! विविध प्रकार की मणियों से निर्मित समवसरण मे स्थित प्राप जीते गये सब योगियो के ऊपर बैठे हुए के समान सुशोभित होते हैं।
विशेषार्थ-भगवान् जिनेन्द्र समवसरण सभा मे गन्धकुटी के भीतर स्वभाव से ही सर्वोपरि विराजमान रहते है। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उन्होंने चकि अपनी प्राभ्यान्तर व बाह्य लक्ष्मी के द्वारा सब ही योगीजनों को जीत लिया था, इसी लिए वे मानो उन सब योगियो के ऊपर स्थित थे ॥२१॥