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________________ वे क्या नहीं ? समय निकालकर पढ़ने का उनका मन था। ये ग्रन्थ के प्रकृति-परिवर्तनों का ही यह फल पा। एक दो स्थलों उनके मरणोपरान्त ग्रन्थागार को लौटाये गये । उत्कृष्ट पर ऐसी भी माशा हुई जैसे मूर्ति के पाषाण में दरार पौर प्रचुर साहित्य का उनका अपना जो पुस्तकालय था मा रही हो। समाचार पाते ही बाबूजी चिन्तित हो उठे। वह उनकी अध्ययन और मनन की प्रवृत्ति का परिचायक न जाने किस-किसके पास लिखा-पढ़ी करके और प्रबल है। वेलगछिया में यह संग्रह प्रब एक नियमित, सार्व- प्रेरणा देकर, दिल्ली और मद्रास के पुरातत्व अधिकारियों जनिक पुस्तकालय के रूप मे खोल दिया गया है। को वहाँ एकत्र किया। प्रतिमा के प्रकृति प्रभावित स्थलों अध्ययन तक ही उनकी रुचि सीमित रही हो ऐसी के अनेक चित्र लेकर तथा अन्य प्रकार से परीक्षण कराबात नहीं थी, सत्साहित्य के सम्पादन, प्रकाशन और कर उसकी सुरक्षा का उचित प्रबन्ध जब तक नहीं हो प्रचार में भी उनकी खासी लगन थी। वीरशासन-सघ गया तब तक वे चैन से नहीं बैठे। और यह सब किया तो उनकी संस्थापित सस्था है ही जिसमे कतिपय उपयोगी उन्होने अपनी रुग्णावस्था में। प्रकाशन हुए है। दिल्ली मे वीरसंवामन्दिर को उनका अपने उत्कट पुरातत्त्व प्रेम और शोध प्रवृत्ति के बहुमूल्य माथिक और क्रियात्मक सहयोग प्राप्त हुआ। कारण देश के पुरातत्व विशारदों मे मापका नाम बड़े भारतीय ज्ञानपीठ के मचालन में उनका प्राजोवन योग- सम्मान के साथ लिया जाता था। अपने जमाने में सर्वश्री. दान भी इसी प्रवृत्ति का प्रमाण है। डा. विन्टर निटज, डा. ग्लासिनव, रायबहादुर प्रार.पी. सतत शोधक चन्द्रा, श्री राख.लनास बनर्जी, ननिगोपाल मजुमदार, ____कला और पुरातत्त्व को शोध का कार्य तो बाबूजी गधाकमल बनर्जी, राधाकुमुद बनर्जी. के. एन दीक्षित, का जीवनव्रत ही बन गया था। अन्तिम सास तक उन्होने अमूल्यचन्द्र विद्याभूषण, विभूतिभूषण दत्त, डा. ए. आर. अपने इस उद्देश्य की मिद्धि के लिए तन, मन और धन भट्टाचार्य, डा. एस. पार. बनर्जी, मुनि कान्तिसागर, लगाकर जो भी किया जा सकता था वह किया। इतना डा० कामताप्रसाद जैन, श्री जुगलकिशोर मुख्तार, श्री ही नही, अपने बाद भी लगभग पांच लाख रुपये के नाथूराम प्रेमी, टी. एन. रामचन्द्रन, डा. कालिदास नाग, जिस जैन ट्रस्ट की स्थापना वे अपने द्रव्य से कर गये है सी. शिवराम मूर्ति, कृष्णदत्त बाजपेयी, पी. आर. श्री उसका उपयोग भी इसी लक्ष्य की पूर्ति में किया जाय निवासन, बालचन्द्र जैन प्रादि शतशः स्वनामधन्य विद्वानों ऐसी उनकी इच्छा रही है। से अच्छी मैत्री रही। इनमे से अनेक विद्वानों ने तो जैन उन्होने लगभग दो तिहाई भारत का भ्रमण करके इतिहास तथा पुरातत्व की शोध मे बाबूजी को बड़ा सहजैन कला, इतिहास, साहित्य और पुरातत्त्व सम्बन्धी जो योग दिया है । अनेकों ने उनके द्वारा मामग्री, सूचनाएं, महत्त्वपूर्ण शोधकार्य किया उसका सही मूल्याकन करने सहयोग और निदेश पाकर इन विषयो पर प्रचुर साहित्य के लिए तो हमे बहुत बडे अध्यवसाय और प्रयास की रचना भी की है। इस दिशा में आपकी सूचनामो भौर मावश्यकता पड़ेगी, परन्तु जिन विलुप्त और विम्मत दिग्दर्शन का महत्व स्वीकार करते हुए भारत सरकार के प्राय निधियो को उन्होने अपने परिश्रम प्रभाव से प्रकाश पुरातत्व-शोध विभाग ने प्रापको अपना आनरेरी कारमे ला दिया उनकी सूची भी बहुत बड़ी है और अपना स्पाण्डेण्ट भी नियुक्त किया था। भारत के प्रथम महमत्री महत्त्व रखती है। इन निधियो की रक्षा और व्यवस्था सरदार वल्लभ भाई पटेल की "सोमनाथ जीर्णोद्धार के प्रति भी वे बहुत चितित रहते थे। इस प्रसग मे उनकी योजना" मे भी बाबूजी की प्रेरणा पौर सहयोग से ही तत्परता और कार्य प्रणाली का एक उदाहरण मुझे स्मरण कलकत्ते मे लाखों रुपया एकत्र हुआ था। मा रहा है। बाबू छोटेलाल जी की लेखनी से भी इस विषय की कुछ समय पूर्व श्रवणबेलगोला की गोम्मटेश्वर सामग्री, प्रचुर मात्रा में समाज को प्राप्त हुई है। सर्वप्रतिमा पर कुछ लोना लगना प्रारम्भ हुमा । सैकड़ों वर्ष प्रथम १९२३ में "कलकत्ता जैन मूर्ति-यन्त्र सग्रह" नामक
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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