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________________ समय का मूल्य सूत्री विनश्यति'-पालसी नष्ट हो जाता है। किसी ने मानते हैं। वह श्रेष्ठ पुरुष महामुनि शुकदेव के समान कोई बालक भी हो सकता है और सत्तर वर्षीय वृद्ध भी "टिक टिक करती घड़ी सभी को मानो यह सिखलाती है। नहीं हो सकता । इस मान्यता के लिए बालक हो अथवा करना है सो जल्दी करलो, घड़ी बीतती जाती है।" वृद्ध, वही पात्र होगा जिसने समय का सतत साहचर्य मनोmara ने वाले लोग इसी भाषा में किया है। जिमने एक-एक रवि के उदयास्तों में समय की वार्तालाप किया करते हैं। 'एक दुकानदार के पास एक बहुमूल्य सम्पदा को नहीं देखा, उसके पास यदि घनग्राहक ने कहा-इस पेंसिल को कितने मून्य में बेचोगे? वैभव का अतिभार भी हो तो उसकी दरिद्रता मे किसे दूकानदार ने उत्तर दिया एक रुपये में। ग्राहक ने कुछ सन्देह हो सकता है ? शतवार्षिक प्रायः प्राप्त कर जिसने सोचकर पुनः पुछा-माप कम से कम कितने में देंगे? समय का पर्याप्त लाभ नहीं लिया, उसने मानो, चलनी मे दूकानदार ने कहा-अब सवा रुपये में। ग्राहक बोला अमृत भरने की चेष्टा की, विरल प्रजलि मे गोरस पान मज़ाक छोडिए, इसकी सही कीमत ले लीजिए । दूकानदार ने किया और नेत्रो को मीलित रख कर अन्धचेष्टा की। घडी देखते हुए कहा-माप जितनी बार मोल भाव करते किसी नीतिकार की सूक्ति है कि 'जो बिन प्रयोजन हए मेरा समय लेते रहेगे, पेंसिल का मूल्य बढ़ता जाएगा।' उन्मार्ग मे एक कोने का व्यय भी नहीं करता और समय को व्यर्थ न खोने वाले व्यक्ति ही मागे बढ़ते हैं। सुवर्णमुद्रा के समान उनका सचय किया करता है, समय श्री उन्ही का वरण करती है जो काटो पर पथ पार करते पाने पर वह कोटि मुद्रायो का व्यय करे तो भी लक्ष्मी है । गुदगुदे गद्दो का कोमल स्पर्श चाहने वालो की चौखट की उस पर कृपावती बनी रहती हैपर खडी दरिद्रता प्रवेश के क्षण देखती रहती है। "य: काकिणीमप्यपथ प्रपन्नां समाहरेन्निष्कसहनतुल्याम । "समय महापन क्रियाशीलका समय ज्ञानधन यत्तियों का, कालेन कोटिष्वपि मुक्तहस्त त राजसिंह न जहाति लक्ष्मी समय सवा मुल्यांकन करता कृतियों और प्रकृतियों का।" -सुभाषित -वैदर्भी महाकाव्य वस्तुत: मनुष्य को स्मरण रखना चाहिए कि काल को जिन्होने स्वतश्मथुप्रो और वार्धक्यजनित कुब्जता मे पुरुषार्थ से ही जीता जा सकता है और विद्या को विनम्र ममय की दीर्घता को देखा है वे उसके बाहरी स्थूल द्रष्टा होकर प्राप्त किया जाता है। पौरषेण जयेत काल विद्या है; क्योकि 'न तेना वृद्धो भवति येनास्य पलित शिर:'- विनय सम्पदा'-क्योंकि प्रायु का कोई विश्वास नहीं। इस बात मे कि शिर के बाल श्वेत हो गये हैं, कोई वृद्ध जिन श्वासों के तन्तु ही अदृश्य है, उन्हें बाध रखने का (मान्य) नही हो जाता। तुषार को प्रोढ़ कर सभी उपाय क्या है ? वे तो किसी भी क्षण अलभ्य हो सकते पत्थर हिमालय नहीं बन जाते । वृद्ध वही हो पायेना हैं। इस महत्त्व को हृदयंगम करने वालो ने ही अनुभव जिसने समय का अध्ययन, मनन, चिन्तनादि मे सदुपयोग किया है किकिया है। अन्यथा बालबापल्य की सीमा से जिनका मानस "प्रायः क्षणलवमानं न लभ्यते हेम कोटिभिः क्वापि। बहिर्भूत नहीं है, उन वय.प्राप्त (पक्व अवस्था वाले) तद् गच्छति सर्वमृषतः काधिकाऽस्त्यतो हानि.॥" लोगो को ज्ञानवृद्धों से ऊपर मानना होगा। इस दृष्टि म महो ! मायु प्रतिमूल्य है, मूल्य से परे है। संमार वद्धत्व की वास्तविक स्थिति पाने के लिए केवल वय. को विपणी मे सर्वस्व मिल सकता है, परन्तु प्रायु नही सापेक्ष होना आवश्यक नहीं, ज्ञानोपासना, तत्त्वाधिगम मिल सकती। कोई वैद्य, डाक्टर, हकीम इसकी वृद्धि का तथा माचार वैशिष्ट्य अपेक्षित है। "यद् यदाचरति श्रेष्ट उपाय नहीं जानता। 'सुर, प्रसुर खगाधिप जेते मृग ज्यों स्तनदेवेतरो जनः। स यत् प्रमाणं कुरुते लोक स्तदुनु हरि काल दलेते। मणि मंत्र तन्त्र बहु होई मरते न बचावे वर्तते।' ममाज मे श्रेष्ठ पूरुष के प्राचरण का मामान्य जन कोई। -(छह ढाला, दौलतराम) कोटि स्वर्ण देकर मनुकरण करते हैं और उसके द्वारा प्रमाणित को प्रमाण भी आयु का क्षण नहीं खरीदा जा सकता । यह अमूल्य
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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