SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन चम्पू काव्यों का अध्ययन प्रगरचन्द नाहटा जैन साहित्य बात विशाल और वैविध्यपूर्ण है। रचनामो का संग्रह-सम्पादन और नई रचनामो का भाषा और विषय की विविधता होने के साथ-साथ उसकी निर्माण करते हैं । वे जिम किसी को प्रेरणा देकर या सप अपनी ऐसी कई विशेषताएं हैं जिससे भारतीय साहित्य मे से रुपया इकट्रा कर जहां-कही से ग्रन्थ प्रकाशित कर देते ही नहीं विश्व साहित्य मे उसका उल्लेखनीय स्थान हो हैं। बहुत से ग्रन्थ तो अपने परिचित प्रादि को मुफ्त सकता है पर खेद है जैन विद्वानो एवं समाज ने अपने वितरण कर दिये जाते हैं। बहुत-से यों ही कहीं पडे साहित्य का महत्त्व सर्व विदित होने का यथोचित प्रयत्न रहते हैं, बहत थोडे से ही बिक पाते है। उपयुक्त विद्वानों नही किया। सैकड़ों नही हजारो महत्वपूर्ण रचनाएं प्रभी जिज्ञासूमों, पत्र सम्पादकों, ग्रन्थालयो तक वे पहुंच ही अप्रकाशित पढी है और जो हजारो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं नहीं पाते। न उन ग्रन्थों की समालोचना ही प्रकाशित उनका प्रचार भी बहुत सीमित रहा। इसलिए जनेतरो होती है न विजारन ही। इस स्थिति में लाखों रुपये के की बात तो दूर जैन विद्वानो तक को अपने कौन से ग्रन्थ खर्च द्वारा जो लाभ जैन एवं अन्य समाज को मिलना कहा से प्रकाशित हए है इसकी जानकारी तक नहीं है तो चाहिए उसका शताश भी नहीं मिल पाता। उसके अध्ययन एव मूल्याकन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह बहुत हर्ष की बात है कि इधर हिन्दी में शोधबीच मे कुछ महीने पूर्व मुझे एक दिगम्बर जैन विद्वान् । कार्य बहुत तेजी से प्रागे बढ़ रहा है। सहस्त्राविक शोधका पत्र मिला कि श्वेताम्बर दिगम्बर समस्त प्रकाशित प्रबन्ध विविध विषयक लिखे जा चके हैं-शताधिक तो जैन ग्रन्थो की कोई सूची तक हम प्रकाशित नही कर प्रकाशित भी हो चुके है। इन शोध प्रबन्धों मे यथा प्रसंग सके। श्वेताम्बर मुद्रित ग्रन्थो की एक महत्त्वपूर्ण सूची जैन साहित्य एवं दर्शन का भी कुछ उल्लेख होता है। करीब ४०-५० वर्ष पूर्व स्व. श्री बुद्धिसागर सूरिजी यद्यपि उनमे बहन-सी भल-भ्रान्तिया भी हो जाती है। ने प्राध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल से प्रकाशित करवाई नमासिपल होने से या प्रगत समय पर थी। उसके अनेक वषो बाद श्री पन्नालाल जन के प्रयत्न श्रम के अभाव में शोध प्रबन्ध के लेखक मूल जैन प्रन्यों से प्रकाशित ग्रन्थो की एक सूची प्रकाशित हुई पर ये दोनो को कम ही पढ़ते हैं, दूसरों के किये हुए उल्लेखों से अपना ही प्रयत्न बहुत ही अधूरे हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ो छोटे-मोटे काम निकाल लेते हैं। फिर भी कुछ शोध प्रबन्धों मे जनग्रन्थ इधर-उधर से प्रकाशित होते है उनकी जानकारी प्रयत्न पूर्वक जैन प्रन्थो को प्राप्त कर उनके अध्ययन एव प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। क्योंकि न कोई ऐसा मूल्याकन का प्रयत्न किया जाता है। पर खेद की बात है बडा ग्रन्थालय है जिसमे सब अन्थों का प्रयत्नपूर्वक संग्रह किyिai मोध प्रबन्ध जैन विद्वानों या पठकों किया जाय, न कोई ऐसा प्रकाशनालय है जिसके द्वारा जिज्ञासपों के प्रवलोकन में नहीं पाते, इसलिए जनधम, एक ही जगह से सैकड़ो पुस्तके प्रकाशित होती हो। न हा दर्शन, इतिहास, साहित्य, कला एवं संस्कृति के मबन्ध मे कोई ऐसा पुस्तक-विक्रेता ही है जो समस्त प्रकाशित जन किन-किन जैनेतर विधान लेखकों ने अपने किन किन ग्रन्थो ग्रन्थो का क्रय एवं विक्रय करता हो। जैन समाज के में क्या-क्या लिखा है उसको जानकारी प्रायः जैन ममाज लाखों रुपये प्रतिवर्ष प्रन्थ प्रकाशन मे खर्च होते है। पर के मामने नही पा पाती। शोध प्रबन्ध अधिक पूल्य वाले न कोई ग्रन्थ का स्तर होता है और न प्रचार ही। अधि- होते हैं इसलिए उन्हें कोई जैन विद्वान् तो क्या बड़े-बड़े कांश साधु-साध्वी और कुछ विद्वान् एवं धावक पुरानी जैन ग्रन्थालय व पुस्तकालय भी नहीं खरीद पाते।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy