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________________ धर्मचक्र सम्बन्धी जैन परम्परा डा० ज्योतिप्रसाद मैन चक्र के पाविष्कार को मानव के इतिहास की सर्वा- किया, विविध द्रव्यों में निरन्तर प्रवाहमान परिगमन. धिक महत्त्वपूर्ण घटना कही जाय तो कोई अत्युक्ति नही शीलता को-एक बाध गति को लक्ष्य किया, जड़ अथवा होगी। माकाश में चमकते सूर्य और चन्द्रमा को देखकर, पुदगल से भिन्न पात्मतत्व को बीन्हा और उसके जग्मअथवा मर सरितामो मे पड़ती भंवरो को देखकर, अथवा मरणाधारित प्रावागमन या भवभ्रमण रूप संसारचक्र को तीव्र झझा मे उठने गोल भभूलों को देखकर, कब, कहाँ, सत्यरूप से स्वीकार किया। उक्त संसारचक्र से संबन्धित किम प्राकृतिक दृश्य से प्रेरणा लेकर मनुष्य ने यह महत्तम कालचक्र कल्पित हुमा। पौराणिक हिन्दुधर्म के विश्वासामाविष्कार किया था यह तो कहना कठिन है किन्तु इस नुसार सष्टिकर्ता परमेश्वर के चतुर्भुजी विष्णु रूप के आविष्कार के फलस्वरूप ही मनुष्य चक्की से अनादि का एक हाथ में चक्र रहता है जो उनके द्वारा सृष्टिचक्र के वर्ण, चरखे से मूत प्रत. वस्त्र, चाक से बर्तन-भांडे और सृजन, सञ्चालन, नियमन, संरक्षण एव सहार का द्योतक चक्के (पहिये) से गमनागमन के साधन प्राप्त करने में माना जाताविधा माना जाता है । विष्णु के कृष्णावतार का तो प्रिय मायुष समर्थ हया । वस्तुत: मनुष्य की भौतिक सभ्यता का प्रों द्री मनचक्रमा मासीन प्रकार नम हम प्राविष्कार के साथ ही हुमा समझना चाहिए। प्रायध का माविष्कार भी विलक्षण था। यह एक प्रकार इतना ही नहीं, जैसे जैसे मनुष्य अपनी इम महान उप- का सर्वश्रेष्ठ प्रक्षेपास्त्र माना जाता था। अन्य अनेक लब्धि (चक्र) की क्षमतामों का अधिकाधिक अनुसन्धान हिन्द देवी-देवतामों तथा जैन यक्ष-यक्षणियो के प्रायुधों में करता गया उसकी मभ्यता गतिवान होती गई, प्रगतिपथ भी 'चक्र' का बहुधा उल्लेख हुमा है। भारतीय जैन, पर उत्तरोनर धावमान होती गई। छोटे से छोटा और बौर एवं हिन्दू परम्परा में सम्पूर्ण पृथ्वी के दिग्विजयी बडं में बड़ा, कोनसा ऐसा यन्त्र है जो किसी न किसी रूप एकराट् सम्राट को चक्रवर्ती संज्ञा दी गई है। यदि हिन्दू में चक्र के प्रयोग बिना निर्मित हो मके अथवा कार्य कर परम्परा में समद्रमन्थन से प्राप्त चौदह रत्नों में एक सके। सुदर्शनचक्र था तो जैन परम्परा के अनुसार इस पल्पकाल चिन्तको, विचारको, दार्शनिकों एवं संस्कृतियों के में भरतादि बारह चक्रवर्ती नरेश हुए है उनमें से प्रत्येक पुरस्कर्ताओं ने भी गति एवं प्रगति के इस मूर्तरूप मथवा की प्रायुधशाला में चौदह रत्न प्रगट हुए थे और उन साकार प्रतीक को प्रतिष्ठान्वित किया और उसकी अनेक रत्नों में प्रधान चक्ररत्न था जिसका साधन करके वह रहस्यवादी व्याख्याएं प्रस्तुत की। उन्होंने जड़ एवं चेतन नरेण दिग्विजय चक्र पूरा करता मोर चक्रवर्ती कहलाता रूप द्विविध जगत में एक नियमित चक्राकार क्रम लक्ष्य था। जैन परम्परा मे जिनेन्द्र का भामडल (प्रभामण्डल) मित्रता होगी एक विशाल, (मिथबन्धु विनोद-चतुर्थ भाग से उगत) प्रभो, भावेगा कब वह काल ॥१॥ प्रभो, या एकबह स्वणिम समय भूपरनमायेगा, जब माभ्यन्तर शत्रु विजय से चोतित होगी शक्ति, भुवन में जब प्रचुर सुखशान्ति का साम्राज्य छायेगा। सदाचारमय सत्यप्रवृत्ति जब व्यक्त करेगी भक्ति । मनुज होंगे सरल सात्विक विमल अध्यात्म चलमय, सरल होगी पब सब की चाल, स्वजीवन मोह भी जिनको सत्पप से गिरायेगा। प्रभो, भावेगा कब वह काल ॥२॥
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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