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________________ २१२ बनेकान्त माशापर पण्डितर और वसुनन्दी मैद्धान्तिकर ने भी जिन- बनाई जाती है, केवल प्रष्ट प्रातिहार्यों के होने अथवा न प्रतिमा के उपर्युक्त लक्षणों का निरूपण किया है। होने से ही अहंन् और सिद्ध प्रतिमा को पहचाना जाता विवेकविलास मे भी कायोत्सर्ग पोर पद्मासन प्रतिमामों है। जिन की महत् अवस्था की प्रतिमा में प्रष्ट प्रतिहार्यो का सामान्य लक्षण बताया गया है । के अलावा दाहिनी भोर यक्ष, बायीं ओर यक्षी और पादसिद्ध परमेष्ठी की प्रतिमानों मे प्रातिहार्य आदि नही पीठ के नीचे उनका लांछन भी दिखाया जाता है। तिलोय. बनाये जाते। किन्तु महत्प्रतिमानो मे उनका होना पण्णत्ती में भी सिंहासनादि तथा यक्षयुगल से युक्त जिनमावश्यक है। महत और सिद्ध की मूल प्रतिमा समान प्रतिमाओं का वर्णन है। ठक्कर फेक ने तीर्थकर प्रतिमा के प्रासन और परिकर का विस्तार से वर्णन किया है वृद्धत्वबाल्यरहितांगमुपेतशाति और उसके विभिन्न अगों के मान का विवरण दिया है । श्रीवृक्षभूषिहृदयं नखकेश हीनम् । अपराजित पृच्छा में भी यक्ष-यक्षी, लांछन और प्रातिहार्यो सवातुचित्रदृषदां समसूत्रभाग की योजना का विधान है। मानसार में भी जिनप्रतिवैराग्यभूषितगुणं तपसि प्रशक्तम् ।। प्रतिष्ठापाठ १५१-१५२ २. स्थापयेदहतां छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णकम् ।। २. शान्तप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारदृक् । पीठं भामण्डल भाषां पुष्पवृष्टि च दुन्दुभिम् ॥ संपूर्णभावारूढानुविदाङ्ग लक्षणान्वितम् ।। स्थिरेतराचंयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । प्रतिष्ठासारोद्धार, ११६२ लांछन दक्षिणे पावं यक्ष यक्षीं । वामके ।। ३. मथ बिम्ब जिनेन्द्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वितम् । प्राशाघरकृत प्रतिष्ठासारोद्धार, १२७६-७७ ऋज्वायुतसुसंस्थानं तरुणाङ्ग दिगम्बरम् ।। सल्लक्षणं भावविवृद्धिहेतुक सम्पूर्णशुद्धावयवं दिगम्बरम् । श्रीवृक्षभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । सत्प्रातिहार्य निजचिह्नभासुर सकारयेद्बिम्बमथाहंत. निजागुलप्रमाणेन साष्टागुलशतायुतम् ।। शुभम् ।। जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, १८० कक्षादिरोमहीनाङ्ग श्मश्रुलेखाविजितम् । प्रातिहार्याष्टकोपेत सर्वज्ञ सवतोमुखम् । ऊवं प्रलम्बक दत्वा समाप्त्यन्त च धारयेत् ॥ तेजोव्याप्तदिशाचक्र ज्ञानव्याप्तजगत्त्रयम् ॥ प्रतिष्ठासारसग्रह, ४११,२,४ कुमुद्चन्द्रकृत प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण उपविष्टस्य देवस्योर्ध्वस्य वा प्रतिमा भवेत् । प्रातिहार्याष्टकोपेत सपूर्णावयव शुभम् । द्विविधापि युवावस्था पर्यङ्कासनगाऽऽदिमा । भावविद्धानुरूपाग कारयेदिबम्बमहंतः ।। वामोदक्षिणजजोवोरुपध्रि करो ऽपि च । वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसग्रह, ४१६६ दक्षिणो वामजसोवोस्तत्पर्यङ्कासन मतम् ।। स्थित वापि तमज्वाहंतं चेद् यक्षयुगांकयुक् । देवस्योर्ध्वस्य चार्चा स्याज्जानुलम्बिभुजद्वया । पीठभामण्डलाशोकभाषत्रिच्छत्रदुंदुभिः । श्रीवत्सोष्णीषयुक्तं दे छत्रादिपरिवारिते ॥ प्रकीर्णकप्रसूनोद्धवृष्टिभिः प्रविराजितम् । विवेकविलास १२१२८-३० भट्टाकलंककृत प्रतिष्ठाकल्प । १. प्रतिहार्यविना शुद्ध सिद्धबिम्बमपीदृशम् ।। १. वास्तुसारप्रकरण, २०२६-३८ वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह ४७० २. लाछनं सिंहासनं च चामरं कुसुमांजलि.। सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपि योज्या तत्प्रातिहादि बिना प्रभामण्डलाशोकाश्च दुन्दुभिश्च्छत्रकत्रयम् ॥ तर्थव। जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, १८१ वीतरागेति विख्याता देवाना तु प्रतिक्रमाः ।। सैड तु प्रतिहाकियक्षयुग्मोज्झित शुभम् । यक्षशासनदेवीश्च कुर्यादुभयपावतः ॥ भट्टाकलककृत प्रतिष्ठाकल्प अपराजित पृच्छा, १३३।२६-२७ ४. ७
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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