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________________ बन प्रतिमा लक्षण मानों के परिकर मादि का वर्णन किया गया है। सूत्रधार है। जबकि वही पार्श्वनाथ के मस्तक पर सात फणों का मण्डन ने अपने देवतामूति प्रकरण और रूपमण्डन दोनों होता है३ । नेमिनाथ की प्रतिमानोंमें कभी-कभी बलराम ही अथों में जिनप्रतिमा को छत्रत्रय, अशोकदूम, देव- और वासुदेव को भी दिखाया जाता। ऐसी एक प्रतिमा दुन्दुभि, सिंहासन, धर्मचक्र प्रादि से युक्त बताया है। मथुरा में मिली है। जैसा कि ऊपर बताया है, प्रत्येक तीर्थकरप्रतिमा अपने लाछन से पहचानी जाती है जो उसके पादपीठ पर २. श्रीसुपार्श्वप्रभो शीर्षे पान्तु वः फणभृत्फणाः । दिखाया गया होता है। किन्तु कुछ तीर्थंकरो की प्रतिमानों पञ्च पञ्चेन्द्रियारातिजयलब्धा ध्वजा इव ॥ मे विशिष्ट चिह्न भी पाये जाते हैं। प्रादि जिनेन्द्र ऋषभ अमरचद्रसूरिकृत पद्यानन्द महाकाव्य, ११० देव की प्रतिमा जटामुकुटरूप शेखर से युक्त होता है। ३. मौलो फणिफणाः सप्त नयश्रीभिः करा इव । सुपार्श्वनाथ के सिर पर सर्प के पांच फणों का छत्र रहता घृताः शान्तरसास्वादे यस्य पार्श्वः स पातु वः ॥ १. तिलोयपण्णत्ती, १२३० वही, १२२६ सूरदास और हिन्दी का जैन पद-काव्यः एक तुलनात्मक विश्लेषण डा० प्रेमसागर जैन सूरदास हिन्दी-भक्ति-युग के सशक्त कवि हैं। उन्होने एकमात्र कवि माने जाते हैं। तुलसी ने भी बालक राम भाव-विभोर होकर सगुण ब्रह्म के गीत गाये । सूरसागर पर लिखा, किन्तु वह महाकाव्य के कथानक के एक अंश इसका प्रतीक है। उसमें सूर के निमित सहस्रों पदों का की पूर्ति-भर है। सूर का मानी नहीं। किन्तु जैन काव्यों मकलन है। ये पद गेय हैं-राग-रागनियों से समन्वित। में वात्सल्य भाव के विविध दृश्य उपलब्ध होते हैं। जैन उनका बाह्य सुन्दर है तो अन्तः सहज और पावन । सब कवियों ने तीर्थङ्करों के बालरूप का चित्राङ्कन किया है। कुछ भक्तिमय है। दूसरी ओर, इसी युगमे, जन कवियों इस विषय की प्रसिद्ध रचना है 'मादीश्वरफागु'। उसके ने अधिकाधिक हिन्दी पद-काव्य का निर्माण किया। वह रचयिता भट्टारक ज्ञान भूषण एक समर्थ कवि थे। चानतभी भक्त्यात्मक है। उसमे भी प्रसाद और लालित्य है। राय, जगतराम, बूचराज आदि ने भी मादीश्वर की बाल विविध राग-रागनियों का नर्तन वहां भी है। दोनों में दशा का निरूपण किया है। कवि बनारसीदास का बहुत कुछ साम्य है। कही कही तो हू-बहू है । बनारसी- 'प्राध्यात्मिक बेटे का चित्रण अनुपम है । इसके अतिरिक्त । दास, द्यानतराय, भूधरदास, भगवतीदास जगतराम और सूरदास का जितना ध्यान बालक कृष्ण पर जमा, बालिका देवब्रह्म प्रादि हिन्दी के समर्थ जैन कवि थे। कला और राधा पर नही। बालिकानों का मनोवैज्ञानिक वर्णन भाव दोनों दृष्टियों से सूर के समतुल्य, किसी भी दशा में सीता, प्रजना और राजुल के रूप मे, जैन पद-काव्यो में कम नहीं। उनकी तुलना हिन्दी के भक्ति-काव्य मे एक उपलब्ध होता है। ब्रह्म रायमल्ल के 'हनुवन्तचरित्र' में नया अध्याय जोड़ सकेगी। हनुमान के बालरूप का भोजस्वी वर्णन है। वस उदात्तता 'भगवद्भक्ति' के क्षेत्र में सूरदास वात्सल्य-रस के परक है। मधुरता परक है। जैन कवियों का अधिकाशः
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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