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________________ मूक जनसेवक बाबूजी प्रभुलाल "प्रेम" कलकत्ता में सन् १९४४ में अखिल भारतीय स्तर पर हैं। ऐसा पूछने पर उसी कार्यरत व्यक्ति ने मेरा परिचय वीर द्विसहस्राब्धि महोत्सव मनाने की योजना परमादर- पूछा । मेरा नाम और मुख्तार साहब ने मुझे बाबूजी की णीय श्रद्धास्पद जुगलकिशोर जी मुख्तार ने श्री बाबू सेवा में भेजा है, इतना सुनते ही वह कुरसी पर से उठे, छोटेलाल जी के अनुरोध पूर्वक प्रेरणात्मक सहयोग से मेरा सामान अपने ही हाथों से उठाकर पास वाले कमरे बनाई । महोत्सव के अध्यक्ष पद को रावराजा सरसेठ में रक्खा । मुझे दो गिलास ठडा पानी पिलाया। रसोइया श्रीमंत हुकमचन्द जी ने सुशोभित किया। खाद्यान्न के को मावाज लगाई कि पण्डितजी भोजन करेंगे। बहिन कठोर नियन्त्रण काल में स्वागताध्यक्ष का परम उत्तर- मुशीला को बुलाकर मेरा परिचय दिया। बहिनजी को दायित्वपूर्ण, काटों का कठोर ताज श्रेष्ठिकुल भूषण, जिन- परिचय देते हुए, मुझे ज्ञात हुमा कि मेरी कल्पना से कुलदिवाकर दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी ने अपने सिर सर्वथा भिन्न यही कर्मठवीर, सेवाव्रती श्री बाबू छोटेलाल पर बांधा। महोत्सव को सर्वाङ्गीण सफल बनाना यह जी है । कुछ क्षणों के लिए मैं निस्तब्ध-सा रह गया। उतरदायित्व स्वर्गीय बाबूजी का था। बाबुजी ने श्री मैं संकोच के भार से दब गया। मेरे मन मन्दिर में धन्य मुख्तार साहब से पत्र द्वारा एक सहयोगी की याचना की है भारत वसुधा को, और धन्य है उस माता को जिसने जो उनको महोत्सव व्यवस्था में सब प्रकार योग दे सके। ऐसे वीर रत्न को प्रसव कर कुल गौरवान्वित किया है, परमादरणीय मुख्तार साहब जिनका मेरे जैसे र सहसा ही यह विचारधारा उठने लगी। ही अकिचन समाज सेवक पर सदैव पुत्रवत वात्सल्य व मुझे स्वर्गीय बाबूजी के साथ कलकत्ता मे उन्चास मुझ स्वगाय बाबूजा क साथ कल विश्वास रहा है, ने मुझे दिल्ली सेवा में उपस्थित होने का दिन सहने का सौभाग्य प्राप्त हुमा। मेरा सारा समय आदेश दिया। आदेश प्राप्त होते ही मैं सेवा में उपस्थित बाबूजी के साथ ही बीतता था । साथ ही भोजन साथ ही हुप्रा । मुझे प्राज्ञा दी गई कि मैं कलकत्ता पहुँच कर कार्य और एक ही कमरे मे शयन । अतः बाजी के गुणों बाबूजी को योग हूँ। मेरे हृदय में सेवा को उमगें थी, और वृत्तियों को प्रत्यन्त निकट से केवल जानने और आज्ञा शिरोधार्य की, और १८ सितम्बर को १० बजे मैं देखने का ही नही उनसे बहुत कुछ सीखने का भी सौभाग्य उनके निवास स्थान १७४ चितरंजन ऐवेन्यु कलकत्ता प्राप्त हुमा । बा जी को निरन्तर कार्यरत रहने से प्रायः पहुँच गया । सामान प्रवेश-द्वार पर ही रख कर, बाबूजी थकावट मा जाती थी और शरीर का तापक्रम बंट जाता की तलाश में भीतर बैठक में प्रवेश किया। बैठक में एक था। ऐसी स्थिति मे मैं उन्हें जाकभी विश्राम लेने को व्यक्ति दुबली-पतली देह वाला केवल घोती और बनियान कहता तो उत्तर देते भया शरीर धारण करने का अर्थ पहिने हुए एकाग्र चित्त से निस्पृह योगी की भांति कार्य ही कर्तव्य-रत होना है। संलग्न था। बाबूजी मनसा, वाचा, कर्मणा कर्तव्यनिष्ठ, धर्ममेरे हृदय में कलकत्ता की चकाचौध, निवास स्थान परायण, सदगुण सम्पन्न, निरभिमानी, विनम्र और गुणके सौन्दर्य, सेठ वर्ग के रहन-सहन और उस पर भी रईसों ग्राही थे। वे धनी और निधन छोटे और बड़े जैन और के वैभव ठाटबाट के माधार पर, वाबजी कमे होंगे इसका प्रजन सबके मित्र थे। किसी भी समाज, धर्म या वर्गका एक काल्पनिक धुंधला-सा भिन्न चित्र था। बाबूजी कहाँ उत्सव हो, बा जी का परामर्श और उपस्थिति सर्वथा
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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