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________________ आचार्य सकलकीर्ति और उनकी हिन्दी सेवा पं० कुन्दनलाल जैन एम. ए. श्रीकंदकुंबाम्बयभूषणाप्तः भट्टारकाणां शिरसः किरीटः चार प्रदीप ६. व्रत कथाकोष १०. ऋषभनाथ चरित्र बदतर्क सिद्धान्तरहस्यवेत्ता पयोजनुनंचभवतरित्र्याम् ॥३२ ११. धन्यकुमार चरित्र १२. पार्श्वनाथ चरित्र १३. मल्लितत्पदृभागी जिनधर्मरागी गुरुपवासी कुसुमेषनाशी। नाथ चरिव १४. यशोधर चरित्र १५. बर्द्धमान चरित्र तपोनुरक्तः समभूविरक्तः पुण्यस्यमूतिः सकलादिकोतिः १६. शान्तिनाथ चरित्र १७. श्रीपाल चरित्र १८. . ॥३३॥ (पट्टावली) सुदर्शन चरित्र १९. सुकुमाल चरित्र २०. जम्बूस्वामी उपक्त पद्यों में प्रतीत होता है। कि प्रा० कुदकुद चरित्र २१. सद्भाषिता वली २२. नन्दीश्वर पूजा २३ की परम्परा में भट्टारक शिरोमणि पट् तर्क सिद्धान्तो माग्चविंशति का २४. सिद्धान्तसारदीपक इत्यादि । के रहस्य वेत्ता श्री पप्रनन्दी मुनि हुए, उनके शिष्य इनके अतिरिक्त सकलकोतिने हिन्दी साहित्यकी भी श्री जिन धर्मानुरागी, गुरुसेवी कामारि, तपस्वी, विरागी एवं पाण्याचा वृद्धि की थी जो प्रायः बहुत ही कम लोगों को विदित हैं, अपने ममय के धुरन्धर विद्वान्, प्रकाण्ड पडित, सर्व श्रेष्ट उनकी छोटी मोटी लगभग २०हिन्दी रचनाएँ प्राप्त हई है। जो प्रायः एक गुटके मे संकलित है, यह गुटका स० प्रतिष्ठाचार्य, एव चारित्र निष्ठ ऋषि और भट्टारक थे। १४९५ या इममे पूर्व का लिग्वा हुमा है इसमे पा० सकलमोर मंत्रशास्त्रके बेत्ता थे, ये उन पप्रनन्दी मुनि (स०१३७५ कीति व जिनदास और भानुकीति की रचनाएं सकलिन १४७०) के शिष्य थे जो भ. प्रभचन्द्र के शिष्य थे जिन्होने 'श्रावकाचार मारोद्धार' नामक ग्रंथ के साथ-साथ अन्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब यह गुटका लिखा गया था उस समय प्रा० सकलकीति जीवित थे और उन्होने इसे स्तोत्रोंकी भी रचना की थी। मुनि पद्मनन्दी के पट्टधर शिष्य देखा होगा । क्योकि स० १४६६ मे उन्होने मागवाड़े के तो शुभचन्न थे पर दूसरे शिष्य प्रा. सकलकीति थे जिन्होने ईडर की भट्टारकीय शाखा को प्रचलित किया था। इसी प्रादिनाय चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराया था। जैसा कि से म्पष्ट विदित होता है कि वे कितने बड़े प्रतिभाशाली मागे दिए हुए ऐतिहासिक पत्र से विदित होता है। एव प्रकाण्ड विद्वत्ता से परिपूर्ण थे, जो एक नई भट्टारकीय उपयुक्त गुटके की प्रशस्ति निम्न प्रकार है। उपयुक्त गुट गद्दी को प्रचलित कर सके। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ "सवत् १४६५ वर्षे लोहासाजण लिखतं हवड ज्ञाति साहित्यकार भी थे, उन्होंने अपनी साहित्य निधियों से श्रे. सिघा मूड़हास सं..."गसीयसभार्या सव उद्यो सन भगवती भारती के भंडार को जिस तरह सम्पन्न प्रोर सद प्रभा० मजल दौ सुत ही का टीका ६ प्रणमिता।" समड बनाया है उससे भारतीय वाङ्मय में उनका नाम बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी साहित्य के इति. स्वर्णाक्षगे में मदा के लिए प्रकित रहेगा। यति हास की श्री वृद्धि में जैनाचार्यों मुनियों एवं विद्वानो ने मा. सकलकीति सस्कृत ग्रथों की रचना के लिए प्रसिद्ध जो बहुमूल्य योगदान किया है उसका कही भी उल्लेग्व हैं उनके लगभग २५ सस्कृत ग्रंथ उपलब्ध हैं जो निम्न नही हैं और ना ही अन्वेषकों द्वारा जन साहित्यकारों को प्रकार हैं। उचित श्रेय मिल सका है. संस्कृत साहित्य के इतिहास मे १.अष्टांग सम्यग्दर्शन २.कर्म,विपाक टीका ३. तत्वार्थ- प्रवश्य ही जैन माहित्यकारों का कुछ उल्लेख मिलता है। सार दीपक ४. द्वादशानुप्रेक्षा ५. परमात्मराज स्तोत्र ६. डा. विन्टरनिट्ज़ ने तो बड़े घोर परिश्रम के पश्चात् पुराणसार सग्रह ७. धर्म प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ८.मूला. भारतीय साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य का समावेश
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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