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________________ मर्थात् वह श्मशानभूमि न हो। भूमि का चयन मंदिर भूमि को श्रेष्ठ, एक अंगुल खाली होने पर मध्यम और निर्माण विधि का प्रमुख और महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि उससे अधिक खाली होने पर निकृष्ट मानते हैं। योग्य भूमि पर निर्मित प्रासाद ही दीर्घ काल तक स्थिर पनि रह सकता है। भूमिपरीक्षा के लिये विभिन्न ग्रंथकारों ने मंदिर में प्रतिष्ठा करके पूजन करने हेतु दो प्रकार दो उपाय बताये हैं। जिस भूमि पर मंदिर बनाने का की प्रतिमामों का निर्माण किया जाता है (१) चल विचार किया गया हो, उसमें एक हाथ नीचे तक गड्ढा प्रतिमा और (२) प्रचल प्रतिमा। प्रचल प्रतिमा अपनी लोदा जाय और फिर उस गड्डे को उसी में से निकाली वेदिका पर स्थिर रहती है, किन्तु चल प्रतिमा को अभिषेक गई मिट्टी से पूर दे। ऐसा करने पर यदि वह मिट्टी करने हेतु अथवा विशिष्ट विशिष्ट अवसरों पर मूलवेदी से गड्ढे से अधिक हो तो वह भूमि श्रेष्ठ होती है, यदि मिट्टी उठा कर अस्थायी वेदी पर लाया जाता है और उत्सव के गड्ढे के बराबर हो तो भूमि मध्यम मानी जाती है और यदि उतनी मिट्टी से ही गड्ढा न भरे तो वह भूमि अन्त में यथास्थान वापस पहुंचाया जाता है। इसलिये प्रथम जाति की समझ कर छोड़ देनी चाहिये। ठक्कर प्रचल प्रतिमा को ध्रुवबेर और चल प्रतिमा को उत्सवबेर फेल ने जो दूसरा उपाय बताया है वह यह है कि खोदे भी कहा जाता है। इन्हें स्थावर और जंगम प्रतिमा भी गये गड्ढे को जल से भर दे और सो कदम दूर चला कहा जा सकता है। जाय । वहाँ से लौटने पर यदि गड्ढा एक अंगुन कम मणि, रत्न, सोना, चांदी,पीतल, मुक्ताफल और पाषाण मिले तो भूमि को उत्तम, यदि दो अंगुल कम हो तो प्रादि से प्रतिमायें निर्मित करने का विधान जैन ग्रन्थों में मध्यम और तीन प्रगुल कम होने पर प्रधम समझा प्राय: मिलता है । जयसेन ने स्फटिक की प्रतिमाएं भी बाय३ । पादलिप्ताचार्य गड्ढे के पूरा पूरा मिलने पर प्रशस्त कही हैं । वर्षमान सूरि ने कांसे, सीसे और कलई सीवान की प्रतिमाएं निर्मित करने का स्पष्ट निषेध किया है। कोलास्थिदग्धाश्मविजिता भूरत्र प्रशस्या जिनवेश्मयोग्या। उसी प्रकार जयसेन प्रादि प्राचार्यों ने मिट्टी, काष्ठ और जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, २८ लेप से बनाई गई प्रतिमाओं को पूज्य नहीं कहा है। २. खात्वा हस्तमधः पूर्ण गते तेनैव पाशुना । ४. उदकेन च खातमापूरितं पदशतगमनागमनपर्यन्तं यत्र सदाधिक्यंसमोनत्वे श्रेष्ठा मध्याधमा च भूः । सपूर्ण दृश्यते सा ज्यायसी। भगुलोहीनं मध्यमा। माशाधर कृते प्रतिष्ठासारोद्धार १११६ बहुभिरगुलेरुन निष्कृष्टेति । तत्राध्वरंगतमधः खनित्वा तद्दोषवळ यदि तेन पांशुना। निर्वाणकलिका, भूपरीक्षाविधि पन्ना १० प्रपूरयेन्यूनसमाधिकेप भंग समं लाभ इति प्रशस्यते ॥ ५. मणि-कणय-रयण-रुप्पय-पित्तल-मुत्ताहलोवलाईहि । जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, २९ । पडिमालक्खणविहिणा जिणाइपडिमा घडाविज्जा। पउवीसंगुलभूमिखणेवि पूरिज्ज पुण वि सा गत्ता। वसुनन्दिकृत श्रावकाचार, ३९० तेणव मट्टियाए हीणाहियसमफला नेया॥ ठक्करफेरुकृत वास्तुसारप्रकरण ३ ६. स्वर्णरत्नमणिरोप्यनिर्मितं स्फटिकामलशिलाभवं सथा। तत्र हस्तमात्रं खातं तत्रत्यमृदा यस्थाः पूर्यते सा मध्यमा। उत्थितांबुजमहासनांगितं जैनबिम्बमिह शस्यते बुधः ।। या उद्वरितमृत्तिका सा श्रेष्ठा। प्रतिष्ठापाठ, ६६ यत्रापरिपूर्णा मृत्तिका साऽधमा। ७. स्वर्णरूप्यताम्रमयं वाच्यं धातुमयं परम् । पादलिप्ताचार्यकृत निर्वाणकलिका भूपरीक्षाविधि पत्र १० कांस्यसीसबङ्गमयं कदाचिन्नव कारयेत् ॥ ३. ग्रह सा भरियजलेण य चरणसयं गाछमाण जा सुसई। प्राचारदिनकर ति-दु-इगभंगुलभूमी महम-मज्झम-उत्तमा जाण ॥ ८. न मृत्तिकाकाष्ठविलेपनादिजातं जिनेन्द्रः प्रतिपूज्यवास्तुसारप्रकरण, १।१४ मुक्तम् ॥ जयसेन कृत प्रतिष्ठापाठ, १५
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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